Book Title: Jinabhashita 2006 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 36
________________ राज न. UPHINIZUU6/16/50 0 मुनि श्री योगसागर जी श्री पुष्पदन्त स्तवन श्री शीतलनाथस्तवन (द्रुतविलम्बित छन्द) (वसन्ततिलका छन्द) श्री पुष्पदंत परमेश्वर को प्रणाम। है दूसरा सुविधनाथ अपूर्व नाम // ज्ञानेश्वरा विधि विनाशक ज्ञान देते। निर्लेप कर्मलेप से परिशुद्ध होते॥ पतितपावन शीतलनाथ जी, दरित पाप निवारक नाथ जी। शिव सुखामृत अर्णव आप हैं, विनयभाव लिए गुण गा रहे। 2 चमर चौसठ सुन्दर डोलते, कनक छत्रत्रयी अति शोभते। पवन मन्द सुगंधमयी चले, प्रकृति के फल पुष्प सभी खिले॥ जो ग्रीष्म में शिखर पर्वत पै विराजे। अभ्रावकाश सरिता तट पै विराजे॥ वर्षा घनी तरुतले ऋतु को बिताये। जो काय-क्लेश सहते समता जगाये॥ 3 जो राग रंग से मन है विरक्त। त्रैगुप्ति सुंदर विशाल गुफा विरक्त॥ ना ही प्रवेश जिसमें अघकर्म का ही। जो शान्ति शाश्वत निजात्म रसानुभूति॥ मनुज देह अपावन हो भले, परम पंकज मोक्ष अहो खिले। जय नमो जयवन्त सदा हुये, पद महा अजरामर पा गये॥ धवलकीर्ति ध्वजा फहरा गये, अभय का वरदान हमें दिये। सुखद शीतल छाँव तले गये, परम पावन जीवन पा गये। अध्यात्म मानस सरोवर है पवित्र। शुद्धोपयोग जल से परिपूर्ण पात्र / वैराग्य पंकज खिले मुनि हंस आये। सम्यक्त्व मोति चुगते शिव सौख्य पाये॥ कुसुम से मन मोहक काय से, न ममता लव मात्र शरीर से। अचल मेरु समान मुमुक्षु है, तप किया वह दुर्दरवान है। 5 जंगत वैभव नश्वर ही रहा, तव दिगम्बर गात्र सुना रहा। दृग खुले डरके निज को लखा, वह अनन्त सुवैभव को दिखा। श्री वीतराग प्रभु के दरबार जायें। सम्यक्त्व रत्न अति दुर्लभ वस्तु पायें। सौभाग्यवान् इसको अतिशीघ्र पायें। मिथ्यात्व के उदय से इसको न पायें। यह चिदम्बर चेतन मूर्ति है, समयसार प्रशान्त समुद्र है। तव स्वरूप निहार कृतार्थ है, विकृतियाँ मद मोह विलीन है। प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, _Jain Education Internatभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी,आयरा०282002(उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन। www.jainelibrary.ord,

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