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के ग्रन्थों में वे हमें प्राप्त नहीं हुए। अतः कुन्दकुन्द न्यायशास्त्र | 10. प्रमाणपरीक्षा पृ. 28, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट संस्करण, के विकास के बहुत पूर्ववर्ती हैं। तथा तत्त्वार्थसूत्रकार उस 19771 समय हुए जब न्यायशास्त्र का विकास आरम्भ हो चुका था
| 11. जैनतर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृ. 69, वीरसेवा मन्दिर और अपने सिद्धान्तों की सम्पुष्टि के लिये उसे भी आवश्यक
ट्रस्ट, 19691 माना जाने लगा था। इसी से उन्होंने अपने सिद्धान्तों को न्यायशास्त्र के द्वारा अनेक जगह पुष्ट किया है, जैसा कि हम
12. त.सू., 1-13, 141 ऊपर देख चुके हैं, खासकर तीन अनुमानावयवों से वस्तु 13. स.सि., 1-11। सिद्धि के उदाहरण।
14. लघीयस्यय 1-3
15. प्र.प., पृ. 28 सन्दर्भ
16. परीक्षा मुख 3-1, 2 1. प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसम्पत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते। न्याय दी. 5 वीर सेवा
17. अनुपदिष्टहेतुकमिदमूर्ध्वगमनं कथ्मध्यवसातुं शक्यमन्दिर संस्करण, सन् 19451
मिजिति? अत्रोच्यते आह...। हे त्वर्थः पुष्पलोऽपि
दृष्टान्तसमर्थनमन्तरेणाभिप्रेतार्थसाधनाय नालमिति, 2. न्या. दी. टिप्प., पृ. 5, संस्करण पूर्वोक्त।
उच्यते। सर्वार्थसिद्धि 10-6,7 की उत्थानिकाएँ। 3. मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानम्, तत्प्रमाणे। त.सू. 18. एतद्वयमेवानुमानांग नोदाहरणम्। परीक्षामुख 3-37। 1-9, 101
न्याय विनि. का. 381, अकलंक ग्र. पत्रपरी. पृ.9। 4. मतिश्रुतावधयो विपर्यश्च । वही, 1-31।
19. युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । देवागम (आप्तमी.), का.। 5. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूता नयाः । वही, | 20. असंख्येयभागादिषुजीवानाम्(अवगाहः),प्रदेशसंहारविसर्पाभ्याम्, 1-31
प्रदीपवत्, त.सू., 5-15, 16। 6. तत्प्रमाणे, आद्ये परोक्षम्, प्रत्यक्षमन्यत्। वही, 1-10, | 21. नन इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति। यदि 11,12।
नित्यं व्ययोदयाभावाद् नित्यताव्याघातः। अथानित्यमेव 7. तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् प्रत्यक्षमन्यत्। त.सू. 1-14, स्थित्यभावान्नित्यताव्याघात इति? नैतद्विरुद्धम्। कुतः? 121
स.सि. 5-32 की उत्थानिका। 8. मति, श्रुत आदि पाँच सम्यग्ज्ञानों का भेद आगमिक है। | 22. अर्पितानर्पितसिद्धेः 5-32 ।
स्वाभावज्ञान और विभाव ज्ञान के भेद से ज्ञानोपयोग के | 23. त.सू. 5--32 । दो भेदों का आ. कन्दकन्द का निरूपण (नियमसार. [..
24. दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्वार्थं पठिते सति । गाथा 10) भी आगमिक है। कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार
फलं स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवैः ।। (गाथा 21, 22, 39, 40) में प्रत्यक्ष और परोक्ष शब्दों का प्रयोग किया है। पर वहाँ इन शब्दों का प्रयोग पदार्थ
अज्ञात व्याख्याकार कृत। के विशेषण रूप में है । हाँ, इसी ग्रन्थ में आगे (गाथा 58 श्री 1008 आदिनाथ जिनेन्द्रबिम्बप्रतिष्ठा महोत्सव, में) अवश्य परोक्ष और प्रत्यक्ष के लक्षण बतलाते हुए
मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) स्मारिका, उन्हें ज्ञान का विशेषण बताया है। पर प्रमाण के भेद
सन 1979 से साभार रूप में उनका प्रतिपादन नहीं है।
9. लघीयस्त्रय 1-31
-अक्टूबर 2006 जिनभाषित 13
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