________________
I
अर्थात् द्रव्यकर्मों और भावकर्मों से छूट जाने के बाद | मुक्त जीव लोक के अन्त पर्यन्त ऊपर को जाता है, क्योंकि उसका ऊपर जाने का पहले का अभ्यास है, कोई संग (परिग्रह) नहीं है, कर्म बन्धन नष्ट हो गया है और उसका ऊपर जाने का स्वभाव है। जैसे कुमार का चाक, लेपरहित तूमरी, एरंड का बीज और अग्नि की ज्वाला। मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन को सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने चार हेतु दिये और उनके समर्थन के लिए चार उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। 17 इस तरह से अनुमान से सिद्धि या विवेचन करना न्यायशास्त्र का अभिधेय है। यद्यपि साध्याविनाभावी एक हेतु ही विवक्षित अर्थ की सिद्धि के लिए पर्याप्त है, उसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतुओं का प्रयोग और उनके समर्थन के लिए अनेक उदाहरणों का प्रतिपादन अनावश्यक किन्तु उस युग में न्यायशास्त्र का इतना विकास नहीं हुआ था। वह तो उत्तर काल में हुआ है। इसी से अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि आदि न्यायशास्त्र के आचार्यों ने साध्य (विवक्षित अर्थ) की सिद्धि के लिए पक्ष और हेतु इन दो को ही अनुमान का अंग माना है 18 उदाहरण को भी उन्होंने नहीं माना- उसे अनावश्यक बतलाया है। तात्पर्य यह कि तत्त्वार्थसूत्रकार के काल में परोक्ष अर्थों की सिद्धि के लिए न्याय (युक्ति-अनुमान) को आगम के साथ निर्णय-साधन माना जाने लगा था। यही कारण है कि उनके कुछ ही काल बाद हुए स्वामी समन्तभद्र 19 ने युक्ति और शास्त्र दोनों को अर्थ के यथार्थ प्ररूपण के लिए आवश्यक बतलाया है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि वीर जिन इसिलिए आप्त हैं, क्योंकि उनका उपदेश युक्ति और शास्त्र के अविरुद्ध है । तत्त्वार्थसूत्र के उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उसमें न्यायशास्त्र के बीज समाहित हैं, जिनका उत्तरकाल में अधिक विकास हुआ है।
तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के पन्द्रह और सोलहवें सूत्रों द्वारा जीवों का लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से
कर सम्पूर्ण लोकाकाश में अवगाह प्रतिपादित किया गया है। यह प्रतिपादन भी अनुमान के उक्त तीन अवयवों द्वारा हुआ है । पन्द्रहवाँ सूत्र पक्ष के रूप में और सोलहवाँ सूत्र हेतु तथा उदाहरण के रूप में प्रयुक्त हैं। 20 जीवों का अवगाह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश में है, क्योंकि उनमें प्रदेशों का संहार (संकोच) और विसर्प (विस्तार) होता है, जैसे प्रदीप । दीपक को जैसा आश्रय 12 अक्टूबर 2006 जिनभाषित
Jain Education International
मिलता है उसी प्रकार उसका प्रकाश हो जाता है। इसी तरह जीवों को भी जैसा आश्रय प्राप्त होता है, वैसे ही वे उसमें समव्याप्त हो जाते हैं ।
सत् में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की सिद्धि भी अनुमान से
द्रव्य का लक्षण तत्त्वार्थसूत्र में आगमानुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की युक्तता को बतलाया है। यहाँ प्रश्न उठा21 कि उत्पाद, व्यय अनित्यता ( आने-जाने) रूप हैं और ध्रौव्य (स्थिरता) नित्यतारूप है। ये दोनों (अनित्यता और नित्यता) एक ही सत् में कैसे रह सकते हैं? इसका उत्तर सूत्रकार ने हेतु का प्रयोग करके दिया है। उन्होंने कहा22 कि मुख्य (विवक्षित) और गौण (अविवक्षित) की अपेक्षा से उन दोनों की एक ही सत् में सिद्धि होती है।
द्रव्यांश की विवक्षा करने पर उसमें नित्यता और पर्यायांश की अपेक्षा से कथन करने पर अनित्यता की सिद्धि होती है । इस प्रकार युक्तिपूर्वक सत् को उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य रूप त्रयात्मक या अनेकान्तात्मक सिद्ध किया गया है 23
इस तरह तत्त्वार्थसूत्र हमें धर्म, दर्शन और न्याय तीनों का सूत्ररूप में दिग्दर्शन करानेवाला जैन वाङ्मय का अद्वितीय सूत्रग्रन्थ है । सम्भवतः इसी से उसकी महिमा एवं गरिमा का गान करते हुए उत्तरवर्ती आचार्यों ने कहा है24 कि इस तत्त्वार्थसूत्र का जो एक भी बार पाठ करता या सुनता है उसे एक उपवास करने - जितना फल प्राप्त होता है । तत्त्वार्थसूत्र की इस महिमा को देखकर आज भी समाज में उसका पठन-पाठन अधिक प्रचलित है और पर्युषण (दशलक्षण ) पर्व में तो उस पर व्याख्यान भी दिये जाते एवं सुने जाते हैं । निष्कर्ष
इस अनुसन्धानपूर्ण विमर्श के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उन विद्वानों का मत युक्त प्रतीत नहीं होता, जो आचार्य गृद्धपिच्द्ध-उमास्वामी को 5वीं शताब्दी का मानकर उनके तत्त्वार्थसूत्र के कतिपय विचारों-निरूपणों को लेकर आचार्य कुन्दकुन्द को उनका उत्तरवर्ती अर्थात् छठी-सातवीं शताब्दी का विद्वान् बतलाते हैं । अतः तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ उक्त प्रकार से न्याय का विमर्श उपलब्ध है वहां कुन्दकुन्द के किसी भी ग्रन्थ में धर्म और दर्शन के सिवाय न्याय का विमर्श नहीं है।
इसी दृष्टि से हमने तत्त्वार्थसूत्र में न्यायशास्त्र के बीज खोजे हैं, जो हमें उक्त प्रकार से प्राप्त हुए हैं। पर कुन्दकुन्द
For Private & Personal Use Only
★
"
www.jainelibrary.org