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मीमांसा, सांख्य-योग, वैशेषिक, वेदान्त आदि दर्शनों में भी जैनदर्शन की भाँति अनेकान्त सिद्धान्त की उपलब्धि होती है। इसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं - उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्व - जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु को उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक माना गया है- "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।'' (तत्त्वार्थसूत्र 5/30) । वस्तु में नई अवस्था की उत्पत्ति " उत्पाद", पूर्वावस्था का विनाश "व्यय" और दोनों अवस्थाओं में मूल तत्त्व का विद्यमान रहना "ध्रौव्य" कहलाता है । जैसे स्वर्णपिण्ड को गलाकर कुण्डल बनाया जाय, तो उसकी पिण्डावस्था का व्यय और कुण्डलावस्था का उत्पाद होता है और दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण ध्रुव रहता है ।
प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट्ट ने भी पदार्थों के उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक स्वभाव को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है और इसे सिद्ध करने में उन्होंने जैनाचार्य समन्तभद्र की युक्ति का ही अवलम्बन किया है । वे कहते हैं
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" स्वर्ण के वर्धमानक (पात्रविशेष) को तोड़कर यदि रुचक (आभूषणविशेष) बनाया जाय, तो वर्धमानक के अभिलाषी को शोक होगा, रुचक के अभिलाषी को हर्ष, किन्तु जिसे स्वर्णमात्र की इच्छा होगी वह मध्यस्थ रहेगा । इसलिए वस्तु त्रयात्मक है, क्योंकि उत्पाद, स्थिति और भंग के अभाव में शोक, हर्ष और माध्यस्थ्य, ये तीन प्रकार की बुद्धियाँ नहीं हो सकतीं। ''3
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नित्यानित्यत्व - जैनदर्शन में वस्तु के उत्पन्न और विनष्ट होनेवाले रूप को पर्याय तथा स्थायी रहने वाले तत्त्व को द्रव्य कहते हैं । इस तरह द्रव्य की दृष्टि से में वस्तु नित्यत्व है और पर्याय की दृष्टि से अनित्यत्व। इस सिद्धान्त का महर्षि पतञ्जलि ने भी व्याकरण महाभाष्य (पस्पशाह्निक) में बड़ी सुन्दरता से प्रतिपादन किया है। वे कहते हैं " द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या । सुवर्णं कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रूचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्त - सुवर्ण पिण्डः पुनरपरयाकृत्या युक्तः खदिराङ्गारसदृशे कुण्डले भवतः । आकृतिरन्या चान्या भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव । आकृत्युपमर्देन द्रव्यमेवावशिष्यते । "
अर्थात् द्रव्य नित्य है, आकृति अनित्य । सुवर्ण किसी आकार से युक्त होकर पिण्डरूप धारण करता है। पिण्डाकृति को नष्ट कर उसके रुचक (आभूषणविशेष) बनाये जाते हैं ।
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| रुचकाकृति का विनाश कर उसे स्वस्तिकों का रूप दिया जाता है । स्वस्तिकों को गलाकर पुनः स्वर्णपिण्ड बना दिया जाता है और वह पिण्ड पुनः अन्य आकृति से युक्त होकर खदिरांगार - सदृश दो कुण्डलों के रूप में परिवर्तित हो जाता है । इस प्रकार आकृति भिन्न-भिन्न होती जाती है, द्रव्य वही का वही रहता है। आकृति के नष्ट होने पर भी द्रव्य अवशिष्ट रहता है।
सांख्यदर्शन यद्यपि पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है, तथापि प्रकृति को परिणामिनित्य अर्थात् नित्यानित्यात्मक स्वीकार करता है, अन्यथा घटपटादि विभिन्न कार्यों के रूप में प्रकृति की उत्पत्ति और विनाश तथा मूलरूप में स्थिरता सिद्ध नहीं हो सकती । बौद्धों के एक आरोप का खण्डन करते हुए पातंजल योगभाष्य में व्यास स्वयं कहते हैं
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“ अयमदोषः । कस्मात् ? एकान्तानभ्युपगमात्। तदेतद् त्रैलोक्यं व्यक्तेरपैति । कस्मात् ? नित्यत्वप्रतिषेधात् । अपेतमप्यस्ति विनाशप्रतिषेधात् ।" (विभूतिपाद / सूत्र 13 ) ।
अनुवाद हम प्रकृति को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य नहीं मानते, अपितु कथंचित् नित्यानित्य मानते हैं। यह संसार (तदन्तर्गत पदार्थ) बाह्य रूप की अपेक्षा नष्ट होता है, क्योंकि सर्वथा नित्यत्व का प्रतिषेध है, नष्ट होकर भी विद्यमान रहता है, क्योंकि सर्वथा अनित्यत्व का निषेध है ।
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भेदाभेद - जैनदर्शन की भाँति पातंजल योगभाष्य के कर्त्ता महर्षि व्यास भी धर्म और धर्मी में कथंचित् भेदाभेद स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि धर्मी के धर्म, लक्षण तथा अवस्था नाम के जो तीन परिणाम माने गये हैं, वे धर्म और धर्मी में भेद की अपेक्षा से ही माने गये हैं। अभेद-दृष्टि से तो एक ही परिणाम है। जैसे एक ही रेखा शत के स्थान में शत, दश के स्थान में दश और एक के स्थान में एक रूप से निर्दिष्ट होती है और जैसे एक ही स्त्री भिन्न भिन्न पुरुषों की अपेक्षा माता, पुत्री और भगिनी कही जाती है वैसे ही एक ही धर्मी का धर्म, लक्षण और अवस्था के भेद से भिन्न भिन्न रूप में निर्दिष्ट होता है, वह भी अवस्थान्तर से, न कि द्रव्यान्तर से 14
एकानेकत्व - वस्तु के भेदाभेद से उसका एकानेकत्व भी सिद्ध होता है । अभेदरूप से वस्तु में एकत्व है, भेदरूप से अनेकत्व । जैसे जाति की दृष्टि से 'गो' पदार्थ एक है, व्यक्ति की दृष्टि से अनेक । धर्मी की अपेक्षा वस्तु एक होती है और धर्म की अपेक्षा अनेक । कुमारिल भट्ट को यह अक्टूबर 2006 जिनभाषित 15
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