Book Title: Jinabhashita 2006 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ अर्थ - जो मुनि इन पाँचों समितियों के पालन करने में शिथिलता करते हैं, तथा निंदनीय प्रमाद करते हैं, उनके दया आदि व्रत और गुण सब नष्ट हो जाते हैं। व्रतों के नष्ट होने से आत्मा का घात करनेवाला महापाप उत्पन्न होता है, उस महापाप के उदय से परलोक में दुर्गतियाँ प्राप्त होती हैं, उन दुर्गतियों में महा घोर दुख उत्पन्न होते हैं और अनन्त संसार में परिभ्रमण करना पड़ता 1 अतः उपर्युक्त प्रमाणों को ध्यान में रखते हुए सभी श्रावकों का यह परम कर्तव्य हो जाता है कि वे आये हुए मुनिराज को, ठहरने के स्थान से दूर एवं उपर्युक्त आगमानुसार जीव-जन्तु रहित स्थानों पर ही शौचादि निवृत्ति की व्यवस्था एवं निवेदन करें तथा मुनि या आर्यिका के ठहरने के स्थान के निकट उनके लिए लैट्रिन आदि कदापि निर्माण न करावें । मुनिराज के चातुर्मास की व्यवस्था करनेवाली समिति के सभी सदस्यगण यदि मुनिचर्या की थोड़ी जानकारी कर लेवें, तो साधुशिथिलाचार पर तुरंत रोक लग सकती है तथा साधु भी, उपर्युक्त श्री मूलाचार के प्रमाणानुसार, महान् पापों से बच सकता है। साधु को उन शहरों या स्थानों पर जाना उचित नहीं है, जहाँ उसके मूलगुणों का ही नाश हो जाये । जिज्ञासा- कृपया श्रीदत्त मुनि का जीवनचरित्र बताएँ । समाधान - राजा जितशत्रु के श्रीदत्त नामक पुत्र का विवाह राजकुमारी अंशमति से हुआ था । अंशमति ने एक तोता पाल रखा था। चौपड़ आदि खेलते हुए जब राजा विजयी होता था, तब तो वह तोता एक रेखा खींचता था और जब रानी विजयी होती थी, तब वह तोता चालाकी से दो रेखायें खींच देता था। उसकी यह शरारत राजपुत्र ने दो-चार बार तो सहन कर ली, परन्तु एक दिन उसे गुस्सा आ गया और उसने तोते की गर्दन मरोड़ दी। तोता मरकर व्यंतर देव हुआ। एक बार राजपुत्र श्रीदत्त, आकाश में बादलों को छिन्नभिन्न होते हुए देखकर विरक्त हो गये और जिनदीक्षा धारण कर ली। अनेक प्रकार के कठोर तपश्चरण एवं विहार करते हुए एक बार वे ध्यान में स्थित थे । अत्यंत ठंड का मौसम था। उसी समय उस पूर्वभव के तोते से व्यंतर बने हुए देव ने उनको देखा । पूर्व वैर के कारण उसने उनके ऊपर पानी बरसाया, ओले गिराये और खूब ठंडी हवा चलाई। उन श्रीदत्त मुनिराज ने उस महान् उपसर्ग को समता परिणाम से सहन किया और समाधिमरणपूर्वक ध्यान में निश्चल होते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पधारे। 1/205, आगरा श्रेष्ठ-साधना मुक्तगिरि का चातुर्मास पूरा हुआ। संघ-सहित आचार्य महाराज ने रामटेक की ओर विहार किया। रास्ते में एक दिन अम्बाड़ा गाँव पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर गया। सारा संघ गाँव के समीप एक खेत में ठहर गया। खेत में ज्वार के डंढलों से बना एक स्थान था। रात्रि विश्राम यहीं करेंगे, ऐसा सोचकर सभी ने प्रतिक्रमण किया और सामायिक में बैठ गए। दिसम्बर के दिन थे। ठंड बढ़ने लगी। रात नौ बजे जब श्रावकों को मालूम पड़ा कि आचार्य महाराज खेत में ठहरे हैं तो बेचारे सभी वहाँ खेजते खोजते पहुँचे। जो बनी सो सेवा की, इंतजाम किया। स्थान एकदम खुला था, नीचे बिछे डंठल नुकीले कठोर थे। इस सबके बावजूद भी आचार्य महाराज अपने आसन पर अडिग रहे। किसी भी तरह से प्रतिकार के लिए उत्सुकता प्रकट नहीं की। लगभग आधी रात गुजर गई। फिर दिन भर के थके शरीर को विश्राम देने के लिए वे एक करवट से लेट गए। उनके लेटने के बाद ही सारा संघ विश्राम करेगा, ऐसा नियम हम सभी संघस्थ साधुओं ने स्वतः बना लिया था, सो उनके उपरान्त हम सभी लेट गए । 24 अक्टूबर 2006 जिनभाषित ठंड बढ़ती देखकर कुछ श्रावकों ने समीप में रखे सूखे ज्वार के डंठल सभी के ऊपर डाल दिए। सब चुपचाप देखते रहे, किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। लोग यह सोचकर निश्चिन्त हो गए कि अब ठंड कम लगेगी, पर ठंड तो उतनी ही रही, डंठल का बोझ और चुभन अवश्य बढ़ गई। उपसर्ग व परीषह के बीच शान्त-भाव से आत्म-ध्यान में लीन रहना ही सच्ची साधुता है, सो सभी साधुजन चुपचाप सब सहते रहे। सुबह हुई। लोग आए। डंठल अलग किए। हमारे मन में आया कि श्रावकों को उनकी इस अज्ञानता से अवगत कराना चाहिए, पर आचार्य महाराज की स्नेहिल व निर्विकार मुस्कराहट देखकर हमने कुछ नहीं कहा। मार्ग में आगे कुछ दूर विहार करने के बाद आचार्य महाराज बोले कि "देखो, कल सारी रात कर्म-निर्जरा करने का कैसा शुभ अवसर मिला, ऐसे अवसर का लाभ उठाना चाहिए।" हम सभी यह सुनकर दंग रह गए। मन ही मन अत्यन्त श्रद्धा और विनय से भरकर उनके चरणों में झुक गए। आज कर्म - निर्जरा के लिए तत्पर ऐसे रत्नत्रयधारी साधक का चरण सान्निध्य पाना दुर्लभ ही है। मुनिश्री क्षमासागरकृत 'आत्मान्वेषी' से साभार Jain Education International प्रोफेसर्स कालोनी 282002 (उ. प्र. ) For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org २५

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36