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करना उचित है? क्या ये चाँदी के मेरु पूजनीय हैं?
समाधान - अष्टाह्निका पर्व के दिनों में, बहुत से जिनालयों में पंचमेरु के प्रतीक रूप से, चाँदी के पाँच मेरु आदि विराजमान करने की परम्परा है। ये अष्टाह्निका पर्व के बाद हटा दिये जाते हैं। अष्टाह्निका पर्व में सभी श्रावक प्रतिदिन पंचमेरु एवं नन्दीश्वर द्वीप की पूजा करते हैं। अतः पंचमेरु के प्रतीक एवं स्मरण के लिए चाँदी के पाँच मेरु विराजमान किये जाते हैं। ये पंचमेरु प्रतिष्ठित नहीं होते हैं, इनको सूरिमंत्र देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है । अतः इनको वेदी में भगवान् के साथ विराजमान करना उचित नहीं है । इनको बेदी से अलग नीचे विराजमान किया जाना चाहिए। ये तो प्रतीक मात्र हैं। ये पूजनीय भी नहीं हैं।
बुन्देलखण्ड के बहुत से जिनालयों में सैकड़ों वर्षों से अष्टधातु के बड़े-बड़े मेरुओं को वेदी में विराजमान करने की परम्परा है। इनमें छोटे-छोटे जिनबिम्ब भी विराजमान रहते हैं, और इनका अभिषेक आदि भी होता है। ऐसे भी सभी मेरु प्रतिष्ठित होने के कारण वेदी में विराजमान करने के योग्य भी हैं और पूजनीय भी है। इनकी वंदना - पूजा अवश्य करनी चाहिए।
जिज्ञासा - क्या दिगम्बर मुनि या आर्यिका, फ्लश की लैट्रिन में शौच के लिए जा सकते हैं ? क्या ऐसा करने पर अहिंसाव्रत का पालन हो जाता है?
समाधान- वर्तमान में कुछ साधु या आर्यिकाओं के द्वारा प्रतिष्ठापना समिति के पालन को बिल्कुल अनावश्यक समझ लिया गया है। ये साधु या आर्यिकाएँ अपने ठहरने के स्थान पर ही बनी हुई सुविधा युक्त फ्लश की या बिना फ्लश की लैट्रिनों में लघुशंका या शौच के लिए निःसंकोच जाने लगे हैं, जबकि आगमदृष्टि इसका बिल्कुल भी समर्थन नहीं करती। कुछ आगम प्रमाण इस प्रकार हैं
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1. श्री मूलाचार में इस प्रकार कहा है वणदाहकिसिमसिकदे थंडिल्लेणुप्परोध वित्थिण्णे । अवगदजंतु विवित्ते उच्चारादी विसज्जेज्जो ॥ 321॥ अर्थ- दावानल से, हल से या अग्नि आदि से दग्ध हुए, बंजरस्थान, विरोधरहित, विस्तीर्ण, जन्तुरहित और निर्जन स्थान में आदि का विसर्जन करें ॥ 321 ॥ मलमूत्र आचारवृत्ति - दावानल को वनदाह कहते हैं। हल से अनेक बार भूमि का विदारण होना कृषि है । श्मशान प्रदेश, अंगारों के प्रदेश और अग्नि आदि से जले प्रदेश को मषि कहते हैं । कृत शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करना चाहिए। अर्थात् जहाँ दावानल (अग्नि) लग चुकी है ऐसा प्रदेश, जहाँ हल चल चुका है ऐसा प्रदेश, तथा श्मशान भूमि,
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अंगारों से अग्नि आदि से जला हुआ प्रदेश, स्थण्डिलीकृत - ऊसर प्रदेश, जिसे बंजर भी कहते हैं अर्थात् जहाँ पर घास नहीं उगती है ऐसी कड़ी भूमि का प्रदेश, जहाँ पर लोगों का विरोध नहीं है ऐसा प्रदेश, विशाल खुला हुआ बड़ा स्थान, जहाँ पर दो इन्द्रिय आदि (चींवटी आदि) जन्तु नहीं है, ऐसा निर्जतुंक स्थान और विविक्त अर्थात् विष्ठा तथा कूड़ा कचरा आदि रहित स्थान या जनरहित स्थान, इन उपर्युक्त प्रकार के स्थानों में मुनि, मल मूत्रादि का त्याग करें अर्थात् उचित भूमि प्रदेश में शौचादि के लिए जावें ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिए।
2. श्री मूलाचारप्रदीप में इस प्रकार कहा है एकान्ते निर्जने दूरे संवृते दृष्ट्यगोचरे । विलादिरहितेऽचित्तऽविरोधे जन्तुवर्जिते ॥ 588 ॥ प्रदेशे क्रियते यत्स्वोच्चार प्रस्त्रवणादिकम् । दृष्टिपूर्वं प्रतिष्ठिापनिका सा समितिर्मता ॥ 589 ॥ अर्थ मुनि लोग जो मल मूत्र करते हैं, वह ऐसे स्थान में करते हैं, जो एकान्त हो, निर्जन हो, दूर हो, ढँका हो अर्थात् आड़ में हो, दृष्टि के अगोचर हो, जिसमें बिल आदि न हों, जो अचित्त हो, विरोधरहित हो अर्थात् जहाँ किसी की रोक टोक न हो और जिसमें जीव जन्तु न हों, ऐसे स्थान में देख - शोध कर वे मुनिराज मल-मूत्रादिक करते हैं, इसको प्रतिष्ठापना समिति कहते हैं । 588-589 ॥
3. श्री आचारसार में इस प्रकार कहा है दूरगूढविशालाविरुद्धशुद्धमहीतले । उत्सर्गसमितिर्विण्मूत्रादीनां स्याद्विसर्जनम् ॥ 26 ॥ अर्थ- दूर (ग्राम के बाहर का स्थान), गूढ़ (छिपा हुआ स्थान), विशाल (बिल तथा छेद रहित चौड़ा स्थान ), अविरोधी (लौकिकजनों के विरोध से रहित स्थान ), ऐसे जीवादि से रहित शुद्ध स्थान में मल-मूत्र आदि करना प्रतिष्ठापना ( उत्सर्ग) समिति है।
उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार, अपने ठहरने के स्थान पर ही निकट में जो लैट्रिन आदि बना दी जाती है, उसका साधु या आर्यिका के द्वारा प्रयोग करना, किसी भी प्रकार आगमसम्मत नहीं है। ऐसा करने से अहिंसा महाव्रत, प्रतिष्ठापना समिति आदि मूलगुणों का नाश होता है। जिसका फल श्री मूलाचारप्रदीप में इस प्रकार कहा है
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आसां ये शिथिला: प्रपालनविधौ निद्यं प्रमादं सदा । कुर्वत्यत्र दयादयो व्रतगुणास्तेषां प्रणश्यन्ति भोः ॥ तन्नाशाच्च महाधमात्महतकं तत्पाकतो दुर्गतौ । घोरं स्यादसुखं ह्ममुत्र परमं चांतातिगासंसृतिः ॥
-अक्टूबर 2006 जिनभाषित 23
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