Book Title: Jinabhashita 2006 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ करते समय द्योतित होना चाहिए, अन्यथा श्रोता यह समझ | सन्दर्भ लेगा कि जो धर्म पदार्थ में बतलाया जा रहा है वह उसमें | 1. "यदेव तत्तदेवातद् यदेवैकं तदेवानेकं यदेव सत्तदेवासद सर्वथा है, अपेक्षाविशेष से नहीं। इससे उसे यह प्रतीति न हो | यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्त-वस्तुत्वनिष्पादकसकेगी कि निरूप्यमाण धर्म का प्रतिपक्षी धर्म भी पदार्थ में परस्पर विरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः।"समयसार है। अर्थात् उसे वस्तु के अनेकान्तात्मक होने का बोध न हो स्याद्वादाधिकार। सकेगा। वह वस्तु को एकमात्र उसी धर्म से युक्त मान लेगा, 2. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। जिसका उसमें उस समय निरूपण किया जा रहा है। अतः शोकप्रमादमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥ भगवान् महावीर ने वस्तु के विषय में कोई भी परामर्श करते आत्तमीमांसा, 591 समय उसके साथ 'स्यात्' शब्द लगाने का निर्देश दिया है। 'स्यात्' एक निपात हैं। उससे यह घोतित होता है कि वस्त | 3. वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा। में निरूप्यमाण धर्म उसमें अपेक्षाविशेष से ही है. सर्वथा तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ नहीं। अन्य अपेक्षा से उसमें प्रतिपक्षी धर्म भी है। इस प्रकार हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्। 'स्यात' के प्रयोग से तत्त्व की अनेकान्तात्मकता का बोध नोत्पादस्थितिभङ्गानामभावे स्यान्मतित्रयम्॥ होता है। ‘स्यात्' शब्द लगाकर वस्तुस्वरूप का कथन करने मीमांसाश्लोकवार्तिक। की इस पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं। 4. "तत्र धर्मिणो धर्मैः परिणामो, धर्माणां लक्षणैः परिणामो, 'स्यात्' शब्द सापेक्षता का द्योतक लक्षणानामप्यवस्थाभिः परिणाम इति ।---- एतेन 'स्यात्' शब्द अनिश्चितता या संशय का वाचक नहीं भूतेन्द्रियेषु धर्मधर्मिभेदात् त्रिविधः परिणामो वेदितव्यः । • है, अपितु वर्ण्यमान धर्म की सापेक्षता का द्योतक है। जैसे परमार्थतस्त्वेक एव परिणामः।-----न धर्मी त्र्यध्वा, 'स्यात् आत्मा नित्य है' इस कथन में 'स्यात्' शब्द से यह धर्मास्तु त्र्यध्वानः । ते लक्षिता अलक्षिताश्च तान्तामवस्थां द्योतित होता है कि आत्मा कथंचित् (किसी अपेक्षा से) प्राप्तुवन्तोऽन्यत्वेन प्रतिनिर्दिश्यन्ते, अवस्थान्तरतो न अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा नित्य है। इस प्रकार 'स्यात्' शब्द न द्रव्यान्तरतः। यथैका रेखा शतस्थाने शतं, दशस्थाने केवल वर्ण्यमान धर्म की सत्ता को निश्चितरूपेण स्वीकार दशैकं चैकस्थाने। यथा चैकत्वेऽपि स्त्री माता चोच्यते करता है, अपितु वह जिस अपेक्षा से वस्तु में है, उसका भी दुहिता च स्वसा चेति।" पातंजल योगभाष्य/विभूतिपाद संकेत कर वर्ण्यमान धर्म के अस्तित्व को और निश्चयात्मक सूत्र 131 बना देता है। इस प्रकार 'स्यात् आत्मा नित्य है' इससे द्रव्य |5. निर्विशेषं न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत। की अपेक्षा आत्मा नित्य ही है, यह अर्थ व्यक्त होता है। । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि॥ यद्यपि वस्तु के अनेकान्तस्वरूप के कथन के लिए मीमांसाश्लोकवार्तिक। 'स्यात्' शब्द का प्रयोग जैनेतर दर्शनों में नहीं किया गया, 6. मीमांसाश्लोकवार्तिक। आकृतिवाद, 101 तथापि 'केनचिद्रूपेण भेदः केनचिद्रूपेणाभेदः'= किसी दृष्टि | 7. "येषां धर्माणां नात्यन्ताभावो यस्मिन्नात्मनि तत्र कदाचित् से भेद है, किसी दृष्टि से अभेद (शास्त्रदीपिका-टीका : सुदर्शनाचार्य), इस रूप में 'स्यात्' शब्द के पर्यायवाची क्वचिदक्रमेण तेषामस्तित्वं प्रतिजानीमहे।" षट्खण्डा-- 'केनचिद्रूपेण' आदि पदों का प्रयोग कर वस्तु की गम/धवला टीका/पुस्तक 1/1/1/11। अनेकान्तात्मकता का कथन किया गया है। परमार्थदृष्टि | 8. "सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तद्योतक: कथाञ्चिदर्थः और व्यवहारदृष्टि शब्दों का उल्लेख करते हुए भी तत्त्व स्याच्छब्दो निपातः।" समयसार/स्याद्वादाधिकार। का निरूपण किया गया है। यह स्याद्वाद ही है। इस प्रकार प्रकारान्तर से जैनेतर दर्शनों में भी स्याद्वाद है। वस्तुतः जहाँ A/2, मानसरोवर, शाहपुरा अनेकान्त है वहाँ स्याद्वाद होगा ही क्योंकि वे वाग् और भोपाल (म.प्र.) अर्थ के समान अविभाज्य हैं। अक्टूबर 2006 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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