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स्वीकार्य है। वे मीमांसाश्लोकवार्तिक में कहते हैं “केनचिद्ध्यात्मनैकत्वं नानात्वं चास्य केनचित् " अर्थात् किसी अपेक्षा से वस्तु एक है, किसी अपेक्षा से अनेक ।
सामान्य- विशेषत्व - जैनदर्शन पदार्थ को सामान्यविशेषात्मक मानता है । पातंजल योगभाष्यकार भी 'सामान्यविशेषात्मनोऽर्थस्य' (समाधिपाद / सूत्र 7 ) इन शब्दों में इसे स्वीकार करते हैं। मीमांसक कुमारिल भट्ट वस्तु की सामान्यविशेषात्मकता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं‘‘विशेषरहित सामान्य और सामान्यरहित विशेष शशविषाण के समान असत् है।''5 अर्थात् एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है।
सत्त्वासत्त्व - जैनदर्शन को वस्तु में जैसा सत्त्वासत्त्व स्वीकार्य है, वैसा ही वैशेषिकदर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद तथा उनके अनुयायियों को भी स्वीकार्य है । 'सच्चासत्' (विद्यमान पदार्थ भी अविद्यमान होता है) इस वैशेषिकसूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर मिश्र लिखते हैं
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'यत्र सदेव घटादि असदिति व्यवह्रियते तत्र तादात्म्याभावः प्रतीयते । भवति हि असन्नश्वो गवात्मना, असन् गौरश्वात्मना --- । (वैशेषिक सूत्रोपस्कार 9/1/4)।
अर्थात् जहाँ सत् घट भी असत् कहा जाता हैं वहाँ तादात्म्याभाव प्रतीत होता हैं, क्योंकि अश्व गोरूप से असत् है, गो अश्वरूप से असत् है ।
मीमांसक कुमारिल भट्ट भी वस्तु को स्वरूप से परिवर्तनशीलता संभव है।
सत् और पररूप से असत् प्रतिपादित करते हैं
सभी धर्म सप्रतिपक्ष नहीं
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स्वरूप पररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते कैश्चिद्रूपं किञ्चन कदाचन ॥ उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैनेतर दर्शनों में भी अनेकान्त स्वीकार किया गया है 1
वस्तुस्वरूप के निष्पादक परस्परविरुद्ध धर्मों के एकत्र अवस्थान में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वे वस्तु में भिन्न भिन्न अपेक्षा से रहते हैं, एक ही अपेक्षा से नहीं। इसे जैनेतर आचार्यों ने भी स्वीकार किया है। पार्थसारथिमिश्र - कृत शास्त्रदीपिका की व्याख्या में सुदर्शनाचार्य कहते हैं
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"भेदाभेदयोर्विरोधाभावे हेत्वन्तरमाह- अपेक्षाभेदादिति, निरूपकभेदादिति यावत् । यद्येकेनैव रूपेण भेदाभेदौ स्यातां तदा विरोधः स्यादपि । नैवमस्ति, किन्तु केनचिद्रूपेण भेदः केनचिद्रूपेणाभेद इति न विरोधः । यथा यज्ञदत्तस्य देवदत्तापेक्षया ह्रस्वत्वेऽपि विष्णुदत्तापेक्षया दीर्घत्वमपीति परस्पर
16 अक्टूबर 2006 जिनभाषित
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विरुद्धयोरपि ह्रस्वत्वदीर्धत्वयोरेकत्र यज्ञदत्ते न विरोधस्तथात्रापि द्रष्टव्यम् ॥”
इन शब्दों का तात्पर्य यह है कि वस्तु में भेद और अभेद दोनों के एक साथ रहने में अपेक्षाभेद के कारण विरोध का अभाव है । यदि एक ही अपेक्षा से भेद और अभेद दोनों होते, तो विरोध होता । किन्तु ऐसा नहीं है। भेद किसी अपेक्षा से है और अभेद किसी अपेक्षा से । इसलिए विरोध नहीं है, जैसे यज्ञदत्त देवदत्त की अपेक्षा ह्रस्व होते हुए भी विष्णुदत्त की अपेक्षा दीर्घ है। इसलिए ह्रस्वत्व और दीर्घत्व के परस्परविरुद्ध होते हुए भी एक ही यज्ञदत्त में उनके एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है । ऐसा ही भेद और अभेद के विषय में भी समझना चाहिए। विरुद्धधर्मों से ही वस्तुस्वरूप को निष्पत्ति
विरुद्धधर्मयुगलों से वस्तुस्वरूप में कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता, इसके विपरीत वस्तुस्वरूप निष्पन्न होता है । उदाहरणार्थ, यदि वस्तु में स्वरूप का सत्त्व (सद्भाव) न हो और पररूप का असत्त्व (अभाव) न हो, तो वस्तुओं का पृथक् पृथक् स्वरूप निश्चित नहीं हो सकता। स्वर्ण रजत से इसलिए भिन्न है कि उसमें स्वर्णत्व की सत्ता है और रजतत्व की सत्ता का अभाव है। इसी प्रकार वस्तु में द्रव्यदृष्टि से नित्यत्व और पर्याय (अवस्था) की दृष्टि से अनित्यत्व होने पर ही वस्तु की शाश्वतता तथा उसकी अवस्थाओं में
अनेकान्त का तात्पर्य यह नहीं है कि वस्तु का प्रत्येक धर्म विरुद्धधर्म से युक्त है। जिन धर्मों का वस्तु में अत्यन्ताभाव होता है, वे उसमें कभी नहीं रह सकते। जैसे अचेतनत्व का आत्मा में अत्यन्ताभाव है, अतः चेतनत्व के प्रतिपक्षी के रूप में उसका अस्तित्व आत्मा में कदापि संभव नहीं है। ऐसा होने पर वस्तु की मर्यादा नष्ट हो जायेगी। जैनाचार्य वीरसेन का कथन है- “वस्तु में जिन धर्मों का अत्यन्ताभाव नहीं होता उन्हीं का अस्तित्व हम उसमें मानते हैं।' अनेकान्त और स्यादवाद
वस्तु के अनेकान्तस्वरूप के कथन की पद्धति स्याद्वाद कहलाती है-" अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः । " (लघीयस्त्रय/ स्वोपज्ञभाष्य 3/62 ) ।
जैसा कि कहा गया है, वस्तु में प्रत्येक धर्म अपेक्षाविशेष से ही होता हैं, सर्वथा नहीं। यह तथ्य वस्तुस्वरूप का कथन
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