Book Title: Jinabhashita 2006 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ तत्त्वार्थसूत्र में न्यायशास्त्र के बीज स्व० डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया तत्त्वार्थसूत्र जैन परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण और | "प्रमाणनयाभ्यां ही विवेचिता जीवादय सम्यगधिगम्यन्ते। प्रतिष्ठित ग्रन्थ है। इसमें जैन तत्त्वाज्ञान का अत्यन्त संक्षेप | तद्व्यतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात्।" न्या.दी.पृ.4 और प्रांजल संस्कृत-गद्यसूत्रों में बड़ी विशदता के साथ | 'न्याय' शब्द की व्युत्पत्ति भी इस प्रकार दी गयी है प्रतिपादन किया गया है। इसके रचियता आचार्य गृद्धपिच्छ | कि 'नि' पूर्वक 'इण गतौ' धातु से करण अर्थ में 'घञ्' हैं, जिन्हें उमास्वामी और उमास्वाति नामों से भी जाना जाता | प्रत्यय करने पर 'न्याय' शब्द सिद्ध होता है। 'नितरामियते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्यायः,अर्थपरिच्छेदकोपायो न्याय इत्यर्थः। इसमें दश अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में रत्नत्रय के स च प्रमाणनयात्मक एव। अर्थात् निश्चय से जिसके द्वारा रूप में मोक्ष-मार्ग का उल्लेख करते हए सम्यग्दर्शन उसके पदार्थ जाने जाते हैं वह न्याय है और वह प्रमाण एवं नय रूप विषयभूत जीवादि सात तत्त्वों, उन्हें जानने के उपायों और | ही हैं, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का ज्ञान किया जाता है। सम्यग्ज्ञान का निरूपण किया गया है। दूसरे, तीसरे और | नाऔ अतएव जैन दर्शन में प्रमाण और नय न्याय हैं। चौथे अध्यायों में जीवतत्त्व का लक्षण, उसके विभिन्न भेदों, | तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण, प्रमाणाभास और नय उससे सम्बन्धित शरीरों, जन्मों, योनियों, आवासों (रत्नप्रभा न्याय के उक्त स्वरूप के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण आदि नरकभूमियों, जम्बूद्वीप-लवणसमुद्र आदि मध्य लोक | और नय दोनों का प्रतिपादन उपलब्ध है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने के स्थानों और देव निकायों) तथा उससे सम्बद्ध आवश्यक स्पष्ट कहा है कि प्रमाण और नयों के द्वारा पदार्थों का यथार्थ जानकारियों का, प्रतिपादन निबद्ध है। पाँचवे अध्याय में | ज्ञान होता है। यथा - 'प्रमाणनयैरधिगमः' (त. सू. 1-6)। . अजीवतत्त्व और उसके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल | इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ धर्म और दर्शन इन पाँच भेदों का, छठे और सातवें अध्यायों में आस्रव तत्त्व | का प्रतिपादन किया गया है वहाँ उसमें प्रमाण और नय रूप (पापास्रव और पुण्यास्रव) का, आठवें में बन्धतत्त्व का, | न्याय का भी प्रतिपादन है। नवमे में संवर और निर्जरा तत्त्वों का तथा दशवें में मोक्ष तत्त्व षटखण्डागम आदि आगमग्रन्थों में ज्ञानमार्गणा के का विवेचन है। इस तरह जैन धर्म के प्रसिद्ध सात तत्त्वों का | अन्तर्गत ज्ञानमीमांसा के रूप में आठ ज्ञानों का वर्णन किया इसमें सांगोपांग कथन किया गया है। और इस प्रकार हमें | गया है। उनमें पाँच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान और तीन ज्ञानों को इसमें धर्म और दर्शन का पर्याप्त या यों कहिये कि प्रायः पूरा | मिथ्याज्ञान निरूपित किया गया है। परन्तु वहाँ उन ज्ञानों का निरूपण उपलब्ध होता है। प्रमाण और प्रमाणाभास के रूप में कोई विभाजन दृष्टिगोचर ___ अब प्रश्न है कि इस धर्म और दर्शन के ग्रन्थ में क्या | नहीं होता। पर तत्त्वार्थसूत्र में आगम वर्णित पाँच सम्यग्ज्ञानों उनके विवेचन या सिद्धि के लिये न्याय का भी अवलम्बन | को प्रमाण और तीन मिथ्याज्ञानों को प्रमाणभास १ (अप्रमाणलिया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर, जब हम तत्त्वार्थसूत्र का | विपर्यय) बतलाकर दार्शनिक एवं न्यायिक दृष्टिकोण प्रस्तुत गहराई और सूक्ष्मता से अध्ययन करते हैं, तो उसी से मिल | किया गया है। मति आदि पाँच ज्ञानों को प्रमाण तथा विपरीत जाता है। मति, विपरीत श्रृत और विपरीत अवधि (विभंगज्ञान) इन न्याय का स्वरूप : प्रमाण और नय तीन ज्ञानों को विपर्यय-अप्रमाण-प्रमाणाभास के रूप में निरूपण संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में तत्वार्थसूत्र में ही सर्व प्रथम उपलब्ध न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषणयति ने न्याय का होता है। स्वरूप देते हुए लिखा है कि प्रमाण और नय दोनों न्याय हैं, क्योंकि उनके द्वारा पदार्थों का ज्ञान किया जाता है। उनके तत्त्वार्थसूत्र में न्याय के दूसरे अंग नय का भी प्रतिपादन , अतिरिक्त उनके ज्ञान का अन्य कोई उपाय नहीं है। जैसा कि है और उसके सात भेदों का निर्देश किया गया है। वे हैं उनके निम्न प्रतिपादन से स्पष्ट है - नैगम, संग्रह व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । टीकाकारों ने इनका विस्तृत विवेचन किया है। 10 अक्टूबर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36