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नेता चेत जायें, तो इस मनमानी पर लगाम लग सके। यों तो | को लोकतंत्र मानते हैं। मेरा उद्देश्य हिन्दू और जैनियों की माननीय सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति ही ऐसा नहीं होने देंगे। समरसता तोड़ना नहीं है, वह कोई तोड़ भी नहीं पाया पर सर्वप्रथम तो गुजरात के राज्यपाल ही ऐसे विधेयक को | अलग अलग धरातल पर खड़े पृथक पृथक उपास्यदेव और पारित होने से रोक सकेंगे। भगवान ऐसे राजनीतिज्ञों को | उपासना पद्धतिवाले दोनों धर्मों को एक तो नहीं ही कहा जा सद्बुद्धि दे, जो इक्कीसवीं सदी में भी अपना झूठ चलाने | सकता।
75, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल - 3
धर्मनाथ
जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर था, उसमें कुरुवंशी, काश्यपगोत्री महाराज भानु राज्य करते थे। उनकी महादेवी का नाम सुप्रभा था। माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन उस महारानी ने सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र को तीर्थंकरसुत के रूप में जन्म दिया। जब अनन्तनाथ भगवान् के बाद चार सागर प्रमाण काल बीत चुका और अन्तिम पल्य का आधा भाग धर्म रहित हो गया तब 'धर्मनाथ' भगवान् का जन्म हुआ था, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी तथा शरीर की ऊँचाई एक सौ अस्सी हाथ थी। जब उनके कुमारकाल के ढाई लाख वर्ष बीत गये तब उन्हें राज्य का अभ्युदय प्राप्त हुआ था। इस तरह सुखपूर्वक जब पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत गया तब किसी एक दिन रात के समय उल्कापात देखने से उन्हें वैराग्य हो गया। उन्होंने सुधर्म नाम के अपने ज्येष्ठ पुत्र के लिये राज्य देकर शालवन के उद्यान में जाकर बेला का नियम लेकर माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन वे भगवान् आहार के लिए पाटलिपुत्र नाम की नगरी में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले धन्यषेण राजा ने आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था के एक वर्ष बीत जाने पर उन्होंने उसी दीक्षा वन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर योग धारण किया और पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें चौंसठ हजार मुनि, बासठ हजार चार सौ आर्यिकायें, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इस प्रकार भगवान् धर्मनाथ ने अनेक देशों में विहार कर धर्म का उपदेश दिया। अन्त में विहार बन्द कर वे पर्वतराज सम्मेदशिखर पर पहुँचे और एक माह का योग निरोध कर आठ सौ नौ मुनियों के साथ प्रतिमायोग से ध्यानारूढ़ हुए। तदनन्तर ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी के दिन रात्रि के अन्तिम भाग में अघातिया कर्मों का नाशकर वे भगवान् मोक्ष को प्राप्त हुए।
मुनि श्री समतासागर कृत 'शलाकापुरुष' से साभार
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-अक्टूबर 2006 जिनभाषित 9
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