Book Title: Jainendra Vyaktitva aur Krutitva
Author(s): Satyaprakash Milind
Publisher: Surya Prakashan Delhi

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Page 12
________________ सम्पादकीय जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व "चिन्तन और क्रियाशीलता, दोनों के दर्शन यदि एक व्यक्ति में करने हैं, तो श्राप जैनेन्द्र जी से मिलिये ।" मेरे ये शब्द सुनकर बाहर से प्राये मेरे एक परिचित बहुत ही चौंके और लगे कहने - "वाह मिलिन्द जी, ग्राप भी खूब कहते हैं । बहते पानी में तो जिन्दगी होती भी है। बरसों तक मौन बैठ रहे जैनेन्द्र जी के साहित्य में आप प्रेरणा और प्रोत्साहन ढूंढ़ने की बात करते हैं ? यह भी एक ही रही ।" उसी समय मुझे याद आया कि एक बार एक साहित्यकार मित्र ने भी, जिनका जैनेन्द्र जी से खासा सम्बन्ध रह चुका था, उनके बारे में मुझे अपने एक पत्र में लिखा था, "जैनेन्द्र जी के साहित्य से अधिक मुझे उनके व्यक्ति पर कहना है, पर उस कहने में खेद है. मिठाम नहीं लेकिन दूसरी श्रोर मेरे कानों में डाक्टर देवराज के ये शब्द बराबर रह रहकर गूंजते हैं कि, 'जैनेन्द्र की प्रतिभा प्रतिद्वन्द्विनी है । बौद्धिक गहनता और नैतिक मूक्ष्म विश्लेषरण में, शायद, हमारे देश का कोई उपन्यासकार उनकी समता नहीं कर सकता । उनकी दृष्टि और कला युग-युग की जिज्ञासा और वेदना में प्रतिष्ठित है ।" इस प्रकार की विरोधी घटनाओं और प्राकस्मिक और अप्रत्याशित प्रहारों तथा श्राशंसानों ने मेरे इस विश्वास को प्रबलतर बना दिया कि जैनेन्द्र- साहित्य का are अध्ययन किए बिना "जैनेन्द्र-पहेली" समझ में नहीं आएगी । मैंने एक जिज्ञासु की भाँति जैनेन्द्र जी से इन प्रचलित धारणाओं को लेकर कुछ जानकारी चाही थी । तो उन्होंने मुझे लिखा था, "मैं जैसे सोच पाता हूँ, उसमें अपने अलावा दोष रखने कहीं जगह नहीं मिलती है । जमाने को या दुनियाँ को दोष देना अपना क्षोभ उतारना है। मशीनवादी सभ्यता ने मानव-सम्बन्धों में विष डाला है, यह मानकर भी आस्था क्यों खोना ?" मैं इन पंक्तियों को पढ़कर निश्चित अभिमत बना सका कि जैनेन्द्र साहित्य में " तात्त्विक चिन्तन" अधिक है और उनकी साहित्यिक सूक्ष्मता और गहनता की शक्ति अज्ञेय है। लेकिन उन जैसे साहित्यकार, दार्शनिक और विचारक के प्रति कुछेक प्रचलित धारणाएँ उनके व्यक्तित्व श्रथवा उनकी प्रतिभा को तो ठेस पहुँचाती नहीं ।

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