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व्यापी प्रचार व प्रसार से ही सम्भव है । क-जर्मन आदि विदेशों के प्रमुख विश्वविद्यलायों में प्राकृत भाषाओं का
अध्ययन हो रहा है। ख- भारत के कतिपय विश्वविद्यालयों में प्राकृत भाषाओं का अध्ययन
हो रहा है। ग- अनेक भारतीय विद्वान् जैनागमों के अध्ययन के लिए उत्सुक हैं। घ- अनेक भारतीय छात्र जैनागमों के अभिलषित विषयों पर शोध निबन्ध लिखना चाहते हैं। किन्तु जैनागमों का प्राथमिक परिचय प्राप्त करने के लिए कोई पुस्तक सुलभ नहीं है।
बहुत वर्षों पहले गुजराती भाषा में "प्रवचन किरणावली" नाम की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, उसका संकलन प्राचीन पद्धति से हुआ था, प्रत्येक गाथा या सूत्र का विषय क्या है, यह उसमें नहीं दिखाया गया है अतः हिन्दी भाषा-भाषी जनता के हित के लिए "जैनागमनिर्देशिका" के संकलन का आयोजन किया गया है।
अल्प धारणा-शक्ति या अल्प आगम-भक्ति
ह्रास-काल (अवसर्पिणी-काल) के प्रभाव से मानव की धारणाशक्ति का उत्तरोत्तर ह्रास होने लगा अतः जैनागमों का लेखन प्रारम्भ हुआ और इस मुद्रण-कला के युग में जैनागमों का मुद्रण हो रहा है । इस ऐतिहासिक घटनाचक्र में जैनागमों के लेखन का हेतु धारणा-शक्ति का अल्प होना बताया गया है, यह कहाँ तक संगत है, यह शोध का विषय है । अतीत में दुभिक्ष के कारण बहुत लम्बे समय तक श्रमण-श्रमणियां जैनागमों का पारायण न कर सके, इसलिए उनका आगम-ज्ञान लुप्त होने लगा था यह ऐतिहासिक सत्य है। किन्तु उस समय श्रुति की विस्मृति का कारण दुर्भिक्ष था-अल्प धारणा-शक्ति नहीं । यद्यपि काल का प्रभाव अनिवार्य है और स्मृति दौर्बल्य की घटना के पीछे भी कुछ तथ्य अवश्य हैं, फिर भी धारणा शक्ति का ह्रास इतना नहीं हुआ है कि
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