Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 230
________________ अध्यात्म-विकास १९९ (१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय ।। इनमें प्रथम चार कर्मो को घातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये आत्मा के गुणों का घात करते हैं । शेष चार कर्म अघातिया हैं, क्योंकि ये आत्मस्वरूप का घात नहीं करते ।' इन आठ कर्मो का प्रभाव आत्मा के ऊपर रहता है। इस का कारण मोह की प्रधानता है । जब तक मोहनीय कर्म बलवान और तीव्र रहता है, तब तक अन्य सभी कर्मों का बन्धन बलवान और तीव्र रहता है । अतः आत्मा के विकास की भूमिका में प्रमुख बाधक मोहनीय कर्म की प्रबलता है। इस प्रकार गुणस्थानों की विकास-क्रमगत अवस्थाओं की कल्पना, मोहशक्ति की उत्कटता, मंदता तथा अभाव पर अवलम्बित है। __ आत्मा और कर्म का संबंध अनादिकालीन है, फिर भी दीनों के स्वभाव एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। कर्म कर्ता के अर्थात् जीव के पीछे-पीछे चलते हैं और कर्म-पुद्गलों का स्वभाव है आत्मा के साथ चिपकना एवं अलग होना। आत्मा को कर्म से विमुक्ति के लिए मन, वचन तथा काय की चंचलता रूपी योगास्त्र का पूर्णतः निरोध करने की अपेक्षा होती है और तीनों योगों का आस्रव रुकने पर स्वभावतः कर्म का आगमन अवरुद्ध हो जाता है। कर्म आत्मा से एक बार वियुक्त होने के बाद पुनः आत्मा से नहीं बंधते हैं, जिस प्रकार पके हुए फल गिर १. (क) ज्ञानादृष्टयावृती वेद्यं मोहनीयायुषी विदुः । नामगोत्रान्तरायो च कर्माण्यष्टे ति सूरयः ।-योगसारप्राभृत, २।२४ (ख) उत्तराध्ययन, ३३३२-३ २. पंचाध्यायी, २९८-२९९ ३. चौथा कर्मग्रंथ, प्रस्तावना, पृ० ११ ४. कम्मं च चित्तपोग्गलरुवं जीवस्सऽणाइसाबन्ध । , -योगशतक, ५४ ५. कत्तारमेव अणुजाइ कर्म। -उत्तराध्ययन, १३।२३ ६. तपोग्गलाण तग्गझसहावावगममो य एवं ति। -योगशतक, ११ ७. यदा निरुद्ध योमास्रवो भवति, तदा जीवकर्मणोः पृथक्त्वं भवति । -उत्तराध्ययनचूणि, अ० १ ८. पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विटे। जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेई ॥ -समयसार, १६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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