Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 263
________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन इस प्रकार निर्वाण-प्राप्त अथवा सिद्धावस्था-प्राप्त आत्मा अपने आप में लीन रहने वाला चिदात्मा है, जो न सृष्टिकर्ता है न विनाशकर्ता है और न संसार का रक्षक ही है। सिद्ध जीव पन्द्रह प्रकार के होते हैं।' १. जिनसिद्ध अथवा तीर्थंकरसिद्ध-तीर्थंकर पद प्राप्ति के बाद जो जीव मोक्ष प्राप्त करता है उसे जिनसिद्ध अथवा तीर्थंकरसिद्ध कहते हैं। २. अजिनसिद्ध अथवा अतीर्थंकरसिद्ध-बिना तीर्थकर हुए मोक्ष प्राप्त करनेवाले को अजिनसिद्ध अथवा अतीर्थंकरसिद्ध कहते हैं । ३. तीर्थसिद्ध-तीर्थंकर की मुक्ति के बाद उनके तीर्थ में मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव को तीर्थसिद्ध कहते हैं। ४. अतीर्थसिद्ध-तीर्थङ्कर होने के पूर्व सिद्धि प्राप्त करनेवाले जीव को अतीर्थसिद्ध कहते हैं। __५. गृहस्थलिंगसिद्ध-गृहस्थ-अवस्था में मुक्ति प्राप्त करनेवाले जीव को गृहस्थसिद्ध कहते हैं। ६. अन्यलिंगसिद्ध-तापस अथवा परिव्राजक अवस्था में मुक्ति पाने वाले जीव को अन्यलिंगसिद्ध कहते हैं। अर्थात् निर्ग्रन्थों के अतिरिक्त तापस, परिव्राजक, संन्यासी भी मोक्ष के अधिकारी हैं । ७. स्वलिंगसिद्ध-सर्वज्ञ भगवान् के कथित जैनमुनि के वेश में जो जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं, उन्हें स्वलिंगसिद्ध कहते हैं। ८. स्त्रीलिंगसिद्ध-स्त्री शरीर से मुक्ति पाने वाले जीव को स्त्रीलिंगसिद्ध कहते हैं। . ९. पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष शरीर से जो जीव मोक्ष प्राप्त करे उसे वह पुरुषलिंगसिद्ध कहते हैं । १०. नपुंसकलिंगसिद्ध-नपुंसक शरीर से जो जीव मोक्ष को प्राप्त करते हैं उन्हें नपुंसकलिंगसिद्ध कहते हैं। १. (क) जिणअजिणतित्थतित्था गिहिअन्नसलिंगथीनरनपुंसा। पत्तेयसंयबुद्धा बुद्धबोहिक्कणिक्काय । – नबतत्त्वप्रकरण, ५२, (ख) प्रज्ञापनासूत्र १९ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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