Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 268
________________ उपसंहार २३७ का विधान है, जिनसे किसी भी प्रकार साधक का मन वासनाओं के प्रति आसक्त न हो। यद्यपि वैदिक परम्परा में भी अनिवार्य रूप से ब्रह्मचर्य का महत्त्व है, लेकिन तन्त्रयोग में भोग को ही योग का साधन माना गया है। तन्त्रवादियों की दृष्टि में तर्क दिया जाता है कि इंद्रियों की प्रवृत्तियों का हठात् एवं कृत्रिम निरोध अस्वाभाविक एवं अप्राकृतिक है। योग के साथ भोग का सामंजस्य होना चाहिए। इन वासनामयी इन्द्रियों की तृप्ति होनी ही चाहिए, ताकि योगी का मन साधना में रमे । इसके साथ ही साथ यह भी स्वीकार किया गया है कि मैथुन-क्रिया में कामुकता नहीं होनी चाहिए और न आसक्ति हो। अतः तन्त्रवादियों के अतिरिक्त वैदिक परम्परा में ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता विहित है। बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य का प्रमख स्थान है। इस सन्दर्भ में यह स्वीकार किया गया है कि मन की स्थिरता बिना इन्द्रियों के निरोध के नहीं हो सकती। इसीलिए ब्रह्मचर्य का स्थान पञ्चशील के अन्तर्गत है। जैन परम्परा ब्रह्मचर्य का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन करती है और उसमें सम्पूर्ण रूप में ब्रह्मचर्य पालन की अनिवार्यता है। तप का महत्व--जैन योग-आंचार के अन्तर्गत इन्द्रियों को नियंत्रित करने के क्रम में देहदमन अर्थात् तप-मार्ग का निर्देश है, क्योंकि विषयों के मूल का उच्छेदन तप से होता है। जैन मतानुसार तप के दो भेद हैं- (१) बाह्य एवं (२) आभ्यंतर । इन दोनों में बताया गया है कि शारीरिक अर्थात् इन्द्रिय दमन के साथ-साथ मानसिक अथवा भावात्मक दमन भी हो। इन्द्रिय-दमन के लिए अनेकविध तप का वर्णन वैदिक योग परम्परा में हुआ है । गीता में तप के अन्तर्गत सत्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति, अपरिग्रह मादि का विधान है। जैन परम्परा में सत्य, ब्रह्मचर्य आदि का विधान अणुव्रत तथा महाव्रत के अन्तर्गत हुआ है। गीता एवं जैन परम्परा में निर्देशित है कि किसी इच्छा अथवा लोभ अथवा कीर्ति के निमित्त तप करना उचित नहीं है। जैन तप के प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, ध्यान तथा कायोत्सर्ग आदि प्रकारान्तर से गीता में वर्णित शरणागति, गुण,. लोकसंग्रह, योग आदि के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। वैदिक परम्परा के चान्द्रायण आदि अनेक तप जैनतप के कायोत्सर्ग से साम्य रखते हैं जिनमें कायक्लेशपूर्वक शक्तिअजित करने का विधान है। यद्यपि बौद्ध परम्परा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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