Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 267
________________ २३६ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन उसके भेदों का निरूपण भी आचार के अणुव्रत आदि जैसे ही हैं। नियम के भेदों के अन्तर्गत ईश्वरप्रणिधान को छोड़कर शौच, संतोष, तप और स्वाध्याय जैन एवं बौद्ध योग में कथित आचार के समान ही हैं। पातञ्जल योगदर्शन में वर्णित व्रत जाति, देश, काल से परे सार्वभौमिक तथा अविच्छिन्न हैं और जैनयोग में प्रयुक्त महाव्रत आदि भी इसी व्रत के समान देश, काल और जाति से परे सार्वभौम हैं । पातञ्जल योगदर्शन में यम के पांच भेद, बौद्ध दर्शन में व्यवहृत पञ्चशील और जैनधर्म में प्ररूपित पञ्चमहाव्रत प्रकारान्तर से एक ही सिक्के के भिन्न-भिन्न पहलू हैं । तीनों परम्पराओं के वे पद एक ही अर्थ के द्योतक हैं। अहिंसा को प्रमुखता-जैन आचार के अन्तर्गत अणुव्रत, महाव्रत आदि के द्वारा अनेक प्रकार की हिंसा, परिग्रह आदि का त्याग प्रतिपादित है, क्योंकि हिंसा से हिंसा बढ़ती है तथा योगधारणा की प्रक्रिया में वैराग्य, समता-भाव आदि का विकास नहीं हो पाता। जैन योगानुसार हिंसा के प्रकारों का प्रतिपादन अत्यन्त सूक्ष्म एवं विशद्रूप में हुआ है। वह हिंसा भले ही प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष; स्वयंकृत हो अथवा अन्यकृत अथवा अनुमोदित, मानसिक हो अथवा वाचिक अथवा शारीरिक । हिंसा के कारण किसी न किसी प्रकार रागद्वेषादि दुर्भावनाएँ बढ़ती ही हैं तथा उनका चिन्तन योगसाधना को विचलित कर देता है। अतः अहिंसा का प्रतिपालन अनिवार्य माना गया है। इसी प्रकार जैन आचार में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का वर्णन है, जिनसे योग साधना उन्नत होती है। वैदिक परम्परा में भी अहिंसा आदि व्रतों की अनिवार्यता मानी गई है, लेकिन उसी परम्परा के अन्तर्गत तंत्रसाधना में मद्य, मांस, मधु आदि का सेवन विहित माना गया है ! बौद्ध परम्परा में हिंसा वर्जित है लेकिन कालान्तर में तन्त्र का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगता है। अतः वैदिक और बौद्ध दोनों परम्पराओं की अपेक्षा जैनयोग में हिंसा का सर्वथा त्याग एक अपनी विशिष्टता है। ब्रह्मचर्य की अनिवार्यता-जब तक मन वासनाओं से निवृत्त नहीं हो जाता है तब तक न चित्त की स्थिरता प्राप्त हो सकती है, न धर्मध्यान हो सकता है और न योग ही सध सकता है। इसीलिये वासनाओं से विमुक्ति अथवा ब्रह्मचर्य आवश्यक माना गया है। ब्रह्मचर्य के सन्दर्भ में भी अहिंसा को ही भौति जैन आचार में तीन योग तथा तीन करण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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