Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 265
________________ उपसंहार भारतीय चिन्तन की समस्त धाराएँ मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में विश्वास रखती हैं और मोक्ष को स्वीकार करती हैं। यही कारण है कि चार्वाक को छोड़कर समस्त भारतीय दार्शनिकों के लिए 'योग' अनिवार्य तत्त्व बन गया है, इसीलिए सब ने मोक्ष-प्राप्ति के साधन के रूप में इसकी महत्ता का प्रतिपादन किया है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि योगपद्धति की अक्षुण्ण धारा भारतीय परम्परा और संस्कृति के साथ गतिशील रही है। हाँ. समय-समय पर इसके बाह्य क्रिया-कलापों में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन भी होते रहे हैं, फिर भी मूलतत्त्व में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ पाया है। वेद में जहाँ समाधि के अर्थ में प्रयुक्त 'योग' शब्द के अस्तित्व का दर्शन होता है तथा ईश्वर से अभय, अमरज्योति तथा विवेक प्राप्ति के लिए प्रार्थना की गई है, वहां पातञ्जल योगदर्शन में इसे चित्तवत्ति के निरोध का कारण माना गया है, क्योंकि चित्तवृत्तियों के निरोध का अर्थ उन्हें सभी मनोविकारों से हटाकर मोक्षमार्ग की साधना में लगाना ही है अर्थात् यहाँ योग का सम्बन्ध मोक्ष-प्रापक धर्म-व्यापार के रूप में स्वीकृत है। जैन योग परम्परा के प्रारम्भ में योग शब्द पातञ्जलि द्वारा प्रयुक्त योगार्थ से साम्य नहीं रखता, क्योंकि जैन परम्परा में मूलतः मन, वचन, काय की प्रवत्ति को योग माना गया है अर्थात् वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम या क्षय होने पर मन, वचन एवं काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों का चञ्चल होना ही योग है। आगे चलकर योग शब्द पातञ्जल योगदर्शनसम्मत अर्थ के निकट आता गया। यम-नियमादि का पालन परिणामों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है तथा इनका उद्देश्य मन, वचन एवं काय द्वारा अर्जित कर्मो की शुद्धि करना ही है। इस दृष्टि से समिति, गुप्ति आदि चारित्र का पालन करना उत्तम योग है, क्योंकि इनसे संयम में वृद्धि होती है और योग भी आत्मा की विशुद्धावस्था का ही मार्ग है। इसके द्वारा जीव को सर्वोत्कृष्ट अवस्था प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त समाधि, तप, ध्यान, संवर आदि शब्द भी 'योग' के अर्थ में व्यवहृत होते हैं और योगसाधना के समर्थ अंग भी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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