Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 262
________________ योग का लक्ष्य : लब्धियां एवं मोक्ष २३१ हो जाता है ।' आत्मा की यह सिद्धावस्था कर्ममुक्त, निराबाध, संक्लेश रहित एवं सर्वशुद्ध होती है, जहाँ निद्रा, तन्द्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीड़ा, संशय, शोक-मोह, जरा, जन्म-मरण, क्षुधा, तृष्णा, खेद, मद, उन्माद, मूर्छा, मत्सर आदि दोष नहीं रहते हैं। इस अवस्था में आत्मा में न संकोच का भाव होता है न विस्तार का । आत्मा सदा एक अवस्था में रहती है। वह अनन्तवीर्य एवं लब्धियों की प्राप्ति करके एक अनिर्वचनीय सुखानुभूति का अनुभव करती है। यह सुखानुभूति पार्थिव सुखानुभूति से सर्वथा भिन्न है, जो मुक्त आत्मा को ही प्राप्त होती है । सभी प्रकार के संसार बन्धनों से मुक्त सिद्ध आत्मा के विभिन्न योगपरम्पराओं में अनेक नाम हैं। ब्राह्मणों ने जहाँ उस सिद्धात्मा को ब्रह्म कहा है, वहाँ वैष्णव, तापस, जैन, बौद्ध, कौलिक आदि ने क्रमशः उसे विष्णु, रुद्र, जिनेन्द्र, बुद्ध, कौल कहा है । वस्तुतः सिद्धावस्था अथवा निर्वाण अनेक नामों से अभिहित होकर भी एक ही तत्त्व का बोधक है। - जैन दर्शनानुसार ईश्वर वह है, जो न इस सृष्टि की रचना करता है और न कृपालु ही है, बल्कि वह अपने ही आत्मस्वरूप में लीन रहने वाली एक स्वतन्त्र सत्ता है, जो सर्वथा मुक्त होती है। अतः जितने भी जीव मुक्त हो जाते हैं वे सभी ईश्वर अथवा परम-आत्मा हैं। ये संख्या में अनन्त हैं। १. निष्कल: करणातीतो निर्विकल्पो निरंजनः । अनन्तवीर्यतापन्नो नित्यानन्दाभिनन्दितः। -ज्ञानाणंव ३९।६८ २. एकान्तक्षीणसंक्लेशो निष्ठितार्थस्ततश्च सः। निराबाधः सदानन्दो मुक्तावात्माऽवतिष्ठते । -योगविन्दु, ५०४ ३. ज्ञानार्णव, ३९।६६-६७ ४. (क) ब्राह्मणैर्लक्ष्यते ब्रह्मा विष्णुःपीताम्बरैस्तथा। रुद्रस्तपस्विभिदृष्ट एष एक निरंजनः । जिनेन्द्रो जल्प्यते जैन: बुद्धः कृत्वा च सौगतैः । कौलिकैः कोल आख्यातः स एवायं सनातनः ।-योगप्रदीप, ३३॥३४ (ख) योगदृष्टिसमुच्चय, १३० ५. संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् । तद्धयेकमेव नियमात् शब्दभेदऽपि तत्त्वातः । -योग दृष्टिसमुच्चय, १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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