Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 260
________________ योग का लक्ष्य : लब्धियों एवं मोक्ष २२९ कर्मों का प्रवेश सर्वथा रुक जाता है वहाँ निर्जरा से संचितकर्मों का पूर्णतः क्षय हो जाता है और तभी जीव (आत्मा) अनन्त सुख का अनुभव करता है। संसार बन्धन का कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग. (प्रवृत्ति) है और इन्हीं कारणों से जीव अपनी विवेकशक्ति को खोकर भ्रान्ति की अवस्था में संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझने लगता है, जो संसार भ्रमण का हेतु है। मोहनीय कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय से जीव को केवल. ज्ञान प्राप्त होता है। केवलज्ञान की यह अवस्था ही जीव की अरिहन्त अवस्था है और इस अवस्था में मन, वचन और काय के योग में से सूक्ष्मकाय-योग का व्यापार चलता रहता है। अतः अरिहन्त संसारावस्था को पार करके भी संसार में रहते हैं और इसीलिए उन्हें जीवन्मुक्त कहा जा सकता है। इस अवस्था को पार करने के लिए चार अधातिया कर्मो का पूर्णतः क्षय करना होता है और जब आत्मा अर्थात् जीव अन्तिम शुक्लध्यान में सूक्ष्मकाययोग अर्थात् अल्प शारीरिक प्रवृति का भी सर्वथा त्याग कर देता है तब वह अचल, निरापद, शान्त, सुख स्थान को पा जाता है जिसे शैलेशी अवस्था कहते हैं । यह सुमेरु-पर्वत के समान निश्चल अवस्था अथवा सर्व संवर रूप योग-निरोध अवस्था है। इस शैलेशी अवस्था में आत्मा अत्यन्त विशुद्ध रहती है और वहाँ किसी भी प्रकार की इच्छा-अनिच्छा का सम्बन्ध ही नहीं होता। ' इस सन्दर्भ में, यह ध्यातव्य है कि आत्मा स्वयं ही कर्ता-धर्ता, गुरुरे अर्थात् अपने प्रति स्वयं उत्तरदायी है। सम्पूर्ण कर्मों का नाश होने पर आत्मा स्वयं ही सिद्धावस्था को प्राप्त होती है तथा एक समय मात्र में ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन कर लोकाकाश के अग्रभाग में स्थित हो जाती है जहां किसी प्रकार का रागभाव न होने के कारण सर्वदा समता१. मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । -तत्वार्थसूत्र, १०१ २. नयत्यात्मानमात्मेव जन्म निर्वाणमेव च । . ___ गूरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थतः। -समाधितन्त्र, ७५ ३. (क) तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात् । -तत्त्वार्थसूत्र, १०५ (ख) कर्मबन्धनविध्वंसादूर्वव्रज्या स्वभावतः ।। क्षणेनेकेन मुक्तात्मा जगच्चूडाग्रमृच्छति । -तत्त्वानुशासन, २३१ ४. द्वेषस्याभावरूपत्वाद् द्वेषश्चैक एवहि । . रागात् क्षिप्रं क्रमाच्चातः परमानन्दसंभवः। -पूर्व सेवाद्वात्रिंशिक, ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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