Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 244
________________ अध्यात्म-विकास २१३ हुए मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर होता है अर्थात् यहीं से उसके मोक्षमार्ग का प्रारंभ हो जाता है ।' इस संदर्भ में असंगानुष्ठान के चार प्रकारों का उल्लेख कर देना उचित होगा । असंगानुष्ठान के चार प्रकार ये हैं - ( १ ) प्रीति, (२) भक्ति, (३) वचन और ( ४ ) असंगानुष्ठान | स्त्री का पालन-पोषण करने में जैसे रागभाव होते हैं, वैसे ही राग अर्थात् कषायों से युक्त व्यापारों को प्रीति-अनुष्ठान कहा गया है । जैसी भक्ति अथवा स्नेह मां-बाप और गुरु की सेवा करने में होता है, वैसी ही भक्ति आचारादि क्रियाओं में होना भक्ति-अनुष्ठान है । शास्त्रयुक्त आचार-विचारादि वचनानुष्ठान हैं, तथा उसी वचनानुष्ठान में स्वाभाविक प्रवृत्ति को असंगानुष्ठान कहा गया है । 3 अतः इन अनुष्ठानों के संयोग से योगी स्वभावतः बाह्य वस्तुओं के प्रति ममतारहित होकर आत्मकल्याण की और मुड़ता है और सिद्धि प्राप्त करता है । इस प्रकार वह क्रमशः केवलज्ञान प्राप्त करता है । अन्ययोग में इस अवस्था को प्रशांतवाहिता, विसंभाग-परिक्षय, शैववर्त्म और ध्रु वाध्वा भी कहा गया है और बतलाया गया है कि यह आत्मा को उत्कृष्ट दशा है, जहां जीव को सच्चे सुखानंद की प्राप्ति होती है । (८) परादृष्टि यह दृष्टि समाधिनिष्ठ, संगादि दोषों से रहित, आत्म-प्रवृत्तियों की कारिका, जागरूक तथा उत्तोर्णाशयवाली होती है । " वस्तुतः यह सर्वोत्तम तथा अन्तिम अवस्था है । इसमें परमतत्त्व का साक्षात्कार होता है । इसलिए इसे चंद्रप्रभा की तरह शान्त एवं सौम्य माना गया है । यह दृष्टि समाधि की अवस्था मानी गई है, जिसमें मन के सभी व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और आत्मा केवल आत्मा के रूप को १. सत्प्रवृत्तिपदं चेहाऽसंगानुष्टान संज्ञितम् । महापथप्रयाणं यदनागामिपदावहम् । २. तत्प्रीतिभक्तिवचनासंगोपददं चतुविधं गीतम् । तत्त्वाभिज्ञैः परमपदसाधनं सर्वमेवैतत् । ३. वही, ११।३-७ ४. प्रशतिवाहितासंज्ञं विसभागपरिक्षयः । शिव ध्रुवावेति योगिभिर्गीयते ह्यदः । ५. समाधिनिष्ठा तु परा, तदा संगविवर्जिता । सात्मीकृतप्रवृत्तिश्च तदुत्तीर्णाशयेति च । Jain Education International — योगदृष्टिसमुच्च १७३ - षोडशक, १०१२ — योगदृष्टिसमुच्चय, १७४ - वही, १७६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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