Book Title: Jain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Author(s): Arhatdas Bandoba Dighe
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

Previous | Next

Page 238
________________ अध्यात्म-विकास २०७ करता है। वह संसार की विविधता तथा मुक्ति के सम्बन्ध में चिन्तनमनन करने में असमर्थ होकर भी सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट अथवा उपदिष्ट कथनों पर श्रद्धा रखता है ।' हाँ, इस अवस्था में साधक को सम्यग्ज्ञान न होने से अच्छी-बुरी चीजों में अन्तर करने का ज्ञान नहीं होता। फलतः जो स्वभाव आत्मा का नहीं है, उसीको भूल से आत्मस्वरूप मान बैठता है। इसी अज्ञान के कारण वह सर्वज्ञ के कथित तत्त्वों पर श्रद्धा रखता है। इस प्रकार इस दृष्टि में साधक योगलाभ प्राप्त करने की उत्कट आकांक्षा रखते हए भी अज्ञान के कारण अनुचित कार्यों में लगा रहता है। मतलब यह कि सत्कार्य में लगे रहने पर भी साधक में अशुभ प्रवृत्तियाँ रहती हैं। (३) बला दृष्टि-इस दृष्टि में योगी सुखासन-युक्त होकर काष्ठाग्नि जैसा तेज एवं स्पष्ट दर्शन प्राप्त करता है। उसे तत्त्वज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न होती है तथा योगसाधना में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होता। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार सुन्दर युवक सुन्दर युवती के साथ नाच, गाना सुनने में दत्तचित्त होकर अतीव आनन्द की प्राप्ति करता है, उसी प्रकार शान्त स्थिर परिणामी योगी भी शास्त्र-श्रवण देवगुरुपूजादि में उत्साह अथवा आनन्द की प्राप्ति करता है। प्रथम दो दृष्टियों में साधक की मनोस्थिरता उतनी सुदृढ़ नहीं हो पाती है जितनी इस दृष्टि में । इसका कारण यह है कि चारित्रपालन का अभ्यास करतेकरते साधक की वृत्तियाँ एकाग्र हो जाती हैं और तत्त्वचर्चा में भी वह स्थिर हो जाता है। यहां तक कि साधक विविध आसनों का सहारा लेकर चारित्र-विकास की सारी क्रियाओं को आलसरहित होकर सम्पादित करता है, जिनसे बाह्य पदार्थो के प्रति तृष्णा अथवा आसक्ति कम हो जाती है और वह धर्म-क्रिया में निरत हो जाता है । भले ही तत्त्व१. योगदृष्टिसमुच्चय, ४७-४८ २. सुखासनसमायुक्तं बलायां-दर्शनं दृढं । परा च तत्त्व-शुश्रूषा न क्षेपो योगगोचरः ।। - वही, ४९ ३. कान्तकान्तासमेतस्य दिव्यगेयश्रुती यथा । यूनो भवति शुश्रूषा तथास्यां तत्त्वगोचरा ॥ -वही, ५२ ४. असाधु तृष्णात्वरयोरभावावात् स्थिरं सुखं चासनमाविरस्ति । --अध्यात्मतत्त्वलोक, ९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304