Book Title: Jain Shasan 1995 1996 Book 08 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
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वर्ष ८ ४ ४६-४७ ता. ३०-७-७१.
( ९ ) इसका मुख्य कारण यही हैं कि अर्धमागधी भाषा का व्याकरण किसी भी व्याकरणकार से हमें स्पष्टतः प्राप्त ही नहीं हुआ हैं ।
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इन सभी परिवर्तनो पर विचार किया जाय और उनकी समीक्षा तथा आलोचना की जाय तो अवश्य कुछ न कुछ समझ में आएगा कि इस प्रकार की विभिन्नता कैसे आ गई । शब्दों में प्राप्त ध्वनिगत परिवर्तनो से तो ऐसा प्रतीत होता है कि
(१) ' पणेदिल' शब्द में किसी को पालि भाषा का आभास होता होगा इस लिए पवेदिअ ही स्वीकारणा उचित लगा हो ।
(२) 'खेयण्ण' और 'नितिय' में 'त' श्रुति की शंका हो गई हो इस लिए 'खेयण्ण' और 'निइअ' ही स्वीकार किया गया हो ।
( ३ ) प्रायः लोप के नियम से प्रेरित होकर त और द का लोप करना उचित मानकर पवेइअ की स्वीकार किया हो ।
(४) ज्ञ का न्न अयोग्य समझकर व्याकरण के नियम से ण्ण गया हो ।
इन स्त्रीकृत पाठों में-
(१) पालि भी है - पगेंदित,
(२) पालि और अर्धमागधी भी है - समेच्च,
(३) अर्धमागधी भी है-लोगं और
(४) महाराष्ट्री भी है-लोयं, णिइए खेयन्न ।
(५) भाषा - सम्बन्धी दूसरी ओर अशोक के समय की विशेषताएँ भी है - लोगं, मितिए और (खेय) ने ( हिं) जैसे
पूर्वी शब्दों में
( ६ ) इस प्रकार के विश्लेषण से यह तो भाषाओं की खिचडी प्रतीत होता है ।
कर दिया
.
क्षेत्र की
।
हो ऐसा
हरेक सम्पादक के पास जो भी सम्पादकीय सामग्री थी उनमें पाठान्तर भी मोजूद थे परन्तु उनमें से अमुक-अमुक पाठान्तरों को छोड़ दिया गया है । वास्तव में ऐतिहासिक भाषाविद की दृष्टि से उन पाठों में से
किसी एक में