Book Title: Jain Shasan 1995 1996 Book 08 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
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१:
: श्री जैन शासन ( वाडि४)
मूल भाषा की प्राचीनता सुरक्षित रह गयी हो । उदाहरणार्थ
( १ ) - शुक्रिंग महोदय द्वारा उपयोग में ली गई सामग्री में से चूर्णि और 'जी' संज्ञक प्रत में खित्तनेहिं' पाठ उपलब्ध था ।
(२) जैन विश्व भारती की 'च' संज्ञक प्रत में 'खेत्तनेहिं' पाठ था ।
(३) म. जै. वि. के संस्करण में उपयोग में ली गई चूणि में 'खित्तण्ण'
पाठ था ।
(४) ऐसी अवस्था मे 'खेत्तन्न' शब्द को अपने प्राचीन मूल रूप में नहीं अपना कर 'खेयन्न' या 'खेयण्ण' क्यों अपनाया गया जब भाषाकीय विकास की दृष्टि से ये दोनों ही रूप परवर्ती है- पहले खेयन्न और बाद मे खेयण्ण । शुविंग महोदय ने मात्र एक ही रूप 'खेयन्न' को आचारांग (प्र. श्रुतस्कंध ) में सर्वत्र अपनाया है परन्तु जे. वि. भा. के संस्करण में 'खेयण्ण' भी मिलता है, आगमोदय समिति के संस्करण में भी खेयण्ण भी मिलत है और म. जै. वि. के संस्करण में खेयण्ण, खेतृण्ण और खेत्तण्ण तो मिलते है परन्तु खेयन्न नहीं मिलता है । इस शब्द का संस्कृत रूप 'क्षेत्रज्ञ' है जिसका अर्थ है 'आत्मज्ञ' और इस खेयंन्न का परवर्ती काल मे टीकाकारों ने 'खेदज्ञ' के साथ जो सम्बन्ध जोडा है वह काल्पनिक है और (मूल भाषा को न समझने के कारण) कृत्रिम परिभाषा देकर उसे ( तोड - मरोड कर ) समझाने का प्रयत्न किया गया है जिससे तुरन्त मध्यवर्ती द का लोप और य श्रुति से द का य. हो जाना है । यह तो मात्र = माय और पात्र पाय जेसा परिवर्तन हुआ आत्मअत्त = आत आय जैसा विकास है ।
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१ अतः ' क्षेत्रज्ञ में त्र के स्थान पर द लाने की जरूरत नहीं थी ।
२ प्राचीन प्राकृत भाषा में त्र का त्त ही हुआ था न कि 'त' का 'य' । ३ अशोक के पूर्वी क्षेत्र के शिलालेखों में ज्ञ का न है न कि ण् ॥
४ सामान्यतः न का ण्ण ई. स. के बाद में प्रचलन में आया है और वह भी दक्षिण और उत्तर पश्चिम क्षेत्र से, न कि पूर्वी क्षेत्र से ।
५ न=पण पूर्णतः महाराष्ट्री प्राकृत की ध्वनि है न कि पालि मापधी, पैशाची या शौरसेनी की ।