Book Title: Jain Shasan 1995 1996 Book 08 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
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८ :
४ ४६-४७ ता. 3०-७-८६ :
६ अतः मूल अर्धमागधी भाषा में न=ण का प्रयोग करना उस भाषा को जबरदस्ती से या जाने अनजाने महाराष्ट्री भाषा में बदलने के समान है और क्या यह भूल अर्धमागधी भाषा के लक्षणों की अनभिज्ञता के कारण ही ऐसा नहीं है और हो रहा है। - ७ शुजंग महोदय ने ज्ञ के लिए सर्वत्र न ही अपनाया है परन्तु वे के स्थान पर य को स्थान देकर तथा त का त्याय करके उन्होंने अनुपयुक्त पाठ अपनाया है । वे स्वयं भी 'खेदज्ञ' शब्द से प्रभावित हुए हो एसा लगे बिना नहीं रहता । उन्होंने 'नित्य के स्थान पर नितिय अपनाया है वह प्राचीन भी है
और बिलकुल उचित भी है, निइय और णिइय तो बिलकुल कृत्रिम है और मात्र मध्यवर्ती त के लोप का अक्षरशः पालन किया गया है ऐसा लगता है ।
८ अश्चर्य है कि पिशल के व्याकरण में म तो नितय [जो प्राचीन है] शब्द मिलता है और न ही णिइय, निइय ।
९ प्राचीन शिलालेखो में और प्राचीन प्राकृत में स्वरभक्ति का प्रचलन है जैसे-क्य=किय, त्य-तिय, व्य-विय इत्यादि और ऐसे संयुक्त व्यंजनों में समीकरण बाद में आया है।
१० समेच्च के बदले में समिच्च अर्थात् ए के स्थान पर इ का प्रयोग [संयुक्त व्याजनो के पहले] भी न तो सर्वत्र मिलेगा और न ही प्राचीनता का लक्षण है।
११ ग के प्रयोगों से अर्धमागधी साहित्य भरा पडा है । क का ग भी पूर्वी क्षत्र का (अशोक के शिलालेख) लक्षण है । क का लोप महाराष्ट्री का सामान्य लक्षण है और यह लोप की प्रवृत्ति काफी परवर्ती है । पवेदित मे से द और त का लोप भी परवर्ती प्राकृत का लक्षण है । शौरसेनी और मागधी में तो द प्रायः यथावत ही रहता है और पालि तथा पैशांची में त ।
१२ उर्धमागधी का सम्बन्ध मागधी से अधिक है न कि महाराष्ट्री से । उसके नाम में मागधी शब्द ही उसकी प्राचीनता. का बोध कराता है । .
१३ इस दृष्टि से जैन आगमों के प्राचीन अंशो मे जो जो प्राचीन रूप ... (नामिक, क्रियापदिक तथा कृदन्त) मिलते है वे उसे पालि भाषा के समीप ले । जाते है न कि महाराष्ट्री प्राकृत के निकट ।