Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक ऋषभकुमार बोले--'आप मेरे पिताजी नाभि के पास जाइये, उनसे राजा की याचना कीजिए। वे आपको राजा देंगे। वे चले, नाभि को सारी स्थिति से परिचित कराया। नाभि ने ऋषभ को. उनका राजा घोषित किया। वे प्रसन्न हो लौट गये। ऋषभ का राज्याभिषेक हुआ। उन्होंने राज्य-संचालन के लिए नगर बसाया । वह बहुत विशाल था । उसका नाम रखा विनीताअयोध्या। ऋषभ प्रथम राजा बने । शेष जनता प्रजा बन गई । वे प्रजा का अपनी संतान की भांति पालन करने लगे। गांवों और नगरों का निर्माण हुआ। लोग अरण्य-वास से हट भवनवासी बन गये। ऋषभ की क्रांतिकारी और जन्मजात प्रतिभा से लोग नये युग के निर्माण की ओर चल पड़े। उन्होंने राज्य की समृद्धि के लिए गायों, घोड़ों और हाथियों का संग्रह किया । असाधु लोगों पर शासन और साधु लोगों की सुरक्षा के लिए उन्होंने अपना मंत्रिमण्डल बनाया। चोरी, लूट-खसोट न हो, नागरिक जीवन व्यवस्थित रहेइसके लिए उन्होंने आरक्षक-दल स्थापित किया। राज्य की शक्ति को कोई चुनौती न दे सके, इसलिए उन्होंने चतुरंग सेना और सेनापतियों की व्यवस्था की। साम, दाम, भेद और दण्ड-नीति का प्रवर्तन हुआ। ऋषभ की दण्ड-व्यवस्था के चार अंग थे १. परिभाषक-थोड़े समय के लिए नजरबन्द करना-क्रोधपूर्ण शब्दों में अपराधी को 'यहीं बैठ जाओ' का आदेश देना। २. मण्डलिबन्ध-नजरबन्द करना—नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना। ३. बन्ध-बंधन का प्रयोग। ४. घात -डंडे का प्रयोग । औषध को व्याधि का प्रतिकार माना जाता है, वैसे ही दण्ड अपराध का प्रतिकार माना जाने लगा। इन नीतियों में राजतन्त्र जमने लगा और अधिकारी चार भागों में बंट गये । आरक्षक वर्ग के सदस्य 'उग्र', मंत्रि परिषद् के सदस्य 'भोज', परामर्शदात्री समिति के सदस्य या प्रान्तीय प्रतिनिधि 'राजन्य' और शेष कर्मचारी 'क्षत्रिय कहलाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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