Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक कल्प-वृक्षों की शक्ति भी क्षीण हो चली। यह यौगलिक व्यवस्था के अन्तिम दिनों की कहानी है । कुलकर-व्यवस्था असंख्य वर्षों के बाद नये युग का आरम्भ हुआ। यौगलिक व्यवस्था धीरे-धीरे टूटने लगी। दूसरी कोई व्यवस्था अभी जन्म नहीं पाई। सक्रांति काल चल रहा था। एक ओर आवश्यकता-पूर्ति के साधन कम हुए तो दूसरी ओर जनसंख्या और जीवन की आवश्यकताएं कुछ बढ़ीं। इस स्थिति में आपसी संघर्ष और लट-खसोट होने लगी। परिस्थिति की विवशता ने क्षमा, शांति, सौम्य आदि सहज गुणों में परिवर्तन ला दिया। अपराधी मनोवृत्ति का बीज अंकुरित होने लगा। अपराध और अव्यवस्था ने उन्हें एक नयी व्यवस्था के निर्माण की प्रेरणा दी। उसके फलस्वरूप 'कल' व्यवस्था का विकास हुआ। लोग 'कल' के रूप में संगठित होकर रहने लगे। उन कुलों का एक मुखिया होता, वह 'कुलकर' कहलाता। उसे दंड देने का अधिकार होता । वह सब कलों की व्यवस्था करता, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखता और लूट-खसोट पर नियंत्रण रखता । यह शासन-तंत्र का ही आदि-रूप था। ____ मनुष्य प्रकृति से पूरा भला ही नहीं होता और पूरा बूरा ही नहीं होता। उसमें भलाई और बुराई दोनों के बीज होते हैं । परिस्थिति का योग पा वे अंकुरित हो उठते हैं । देश, काल, पुरुषार्थ, कर्म और नियति के योग की सह-स्थिति का नाम है-परिस्थिति । वह व्यक्ति की स्वभावगत वृत्तियों की उत्तेजना का हेतु बनती है। उससे प्रभावित व्यक्ति बुरा या भला बन जाता है। जीवन की आवश्यकताएं कम थीं। उसके निर्वाह के साधन सुलभ थे। उस समय मनुष्य को संग्रह करने और दूसरों द्वारा अधिकृत वस्तु को हड़पने की बात नहीं सूझी। इसके बीज उसमें थे, पर उन्हें अंकुरित होने का अवसर नहीं मिला। ज्यों ही जीवन की थोड़ी आवश्यकताएं बढ़ीं, उसके निर्वाह के साधन कुछ दुर्लभ हुये कि लोगों में संग्रह और अपहरण की भावना उभर आयी । जब तक लोग स्वयं शासित थे, तब तक बाहर का शासन नहीं था। जैसे-जैसे स्वगत शासन टूटता गया, वैसे-वैसे बाहरी शासन बढ़ता गया। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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