Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 04
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 416
________________ ४०४ जैनकथा रत्नकोष नाग चोथो. नां सोस्ति तु कोऽपि धर्मः ॥ समनेविषे विषम अने विषमनेवि सम सतीने विषे जुतुं अने असतीने विषे साचुं करे ने वली जेना निमित्तथी जीवमात्र नी क्रियाने विषे फल थाय ने माटे एवो अपूर्व लोकोत्तर अनिर्वचनीय धर्म जे. तेमाटे हे गुणाकर !'वांनित लक्ष्मीनो खप दोयतो तुं विशेष प्रकारे ध में कस्य ॥ यतः ॥ धर्माद्वनं धनतएव समस्तकामाः, कामेच्यएव सकलेंश्यि जं सुखं च ॥ कार्यार्थिना हि खलु कारणमेषणीयं, धर्मो विधेय इति तत्वविदोव दंति ॥ नावार्थः-धर्मथी धन मले से अने धनथी काम अर्थात् सुरखोपनो ग मले ने वली ते कामथी नानाप्रकारना सुखोपनोगथी सघली इंश्योनां सुख उत्पन्न थाय ने माटे ते सुखरूप कार्यना अर्थि पुरुचे खरेखर ते का र्यना कारणने शोधq जोश्ये ? के जेथी सर्व कार्यनी सहजमा प्राप्ति थाय. ते धर्म; दान, शीत, तप अने नाव रूप चार प्रकारनो बे. तेमां वती दानना चार नेद ने एक अजयदान, बीजुं ज्ञानदान, त्रीजुं धर्मदान.अने चोथु उपष्टंनदान, तेमां जे मरणना जयथी कोइने राखवो एवं प्राणीने ह पर्नु करनार ते अनयदान कहीये. सर्वदानथकी ए दान महोटुं , तथा रूडां शास्त्र नणाववां नगवां तया जगाववाने स्थानक आपq पुस्तकादि क थापी जणवाने सहाय देवो ते ज्ञानदान जाणवू. श्रावक अथवा साधु ने जे धर्मना निर्वाहतुं हेतु एटले कारण अन्नदानादिक यशन खादिमादि क अनेक प्रकारें . तथा धर्मथकी पडता एवा मनुष्यनुरक्षण करवू,ते धर्मों पष्टंनदान तथा अरिहंतादिकने दान देवू ते पांचमुं सुपात्रदान त्रण प्रकारनु जे तिहां जे अरिहंतादिक साधुने दानदेवं ते उत्तम सुपात्रदान,अने देशविरति श्रावकने दान देवं ते मध्यम सुपात्रदान,तथा समकेत दृष्टि श्रावकने दा न दे, ते जघन्य सुपात्र दान एरीतें पांच प्रकारचें दान ते मोदफल आपे. तथा वली अजयदान, सुपात्रदान, अनुकंपादान, नचितदान अने की ह्निदान इत्यादि दानना अनेक नेद ले तेमां अनयदान अने सुपात्रदान ए बे दान ते मोद अने नोगफलनां अंग तथा अनुकंपादान ते धर्म, अंग ले तथा नचितदान अने कीर्त्तिदान ए वे दान प्रीतिनां अंग ले तथा धर्मदान अने उपटंनदान ए वे दान ते मोदनां तथा धर्मपामवानां अंगळे. हवे शीलधर्म कहे जे जे अब्रह्मनो त्याग तेने शील कहीये. ते एक,देश थी अने बीजो सर्वथी एवा बे प्रकारें ले तिहां स्वदारासंतोष अने परस्त्री

Loading...

Page Navigation
1 ... 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477