Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 04
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 434
________________ ४२२ जैनकथा रत्नकोष भाग चोथो. विना फल थयां जेमाटे या जंगमतीर्थरूप मुनिमहाराज महारे घेर पधा या एवी अत्यंत मनमां जावना जावतो उत्तम जातिना सिंह केसरीया या प्रासुक मोदक मुनिने वोहोरावीने जेम धन पामवाथी यानंद प्राप्त थाय तेम ते पूर्व परमं खानंदने जोगवतो हवो. हुं जाएं बुं जे जेनी न पमाने विषे विश्वनुं पण दारिद्र्य टले एवं ए दान बे. जेमाटे चित्त वित्त यने पात्र ए त्रण योग्य ते सुविष्टना पूर्णजायें मव्यां यतः ॥ कस्सेचिय हो वित्तं, चित्तंत्र्यन्नेसि उनयमन्नेसिं ॥ चित्तं वित्तं पत्तं, तिन्निवि केसि धन्ना पं ॥ जावार्थ:- केटला एकने वित्त होय वे, अन्यने मन होले तथा य न्यने वली चित्त ने वित्त ए वे पण होय ते परंतु चित्त वित्त ने सुपा त्र ए त्रणेनो योग तो कोइएक नाग्यवंत होय तेनेज मजे ले ॥ १ ॥ ते नना प्रजावकी ने सुविष्टें अतुल्य नोगकर्म बांध्यं सुपात्र दाननुं कार्य ते सुखलक्ष्मीनो ने सुखसंपदानो संचयकार बे. तिहां विष्ट तो निकृष्ट चित्तथको जेम कोइने नृत वलग्यो होय ते या तालवे तेम कांइक हसीने बोल्यो जेहने जेवुं बोलवु उचित होय ते तेवं बोले तेम बोल्यो के हो ए खं पाखंमेंकरी लोकोनां घर घंटे बे ए महाधूर्त ने तें फोकट एने दान खाप्युं जेम राखमांहे घी नाखवुं जेम पाणीना प्रवाहमांहे मूतरखुं तेम एने दान दीधानुं फल जानुं एने या पवा करतां तो पोते पेटमांज खाइये ते सारुं एम मुनिनी निंदा करवार्थ । खाकरूं शुनकर्म बंधाएं. जे जोगव्या विना लूटकोज थाय नही एवं निकाचित कर्मबांधयुं त्यां ते विष्टने जेम घूडने सूर्यनुं दर्शन दुःखदायी थाय तेम ते मुनिनुं दर्शन दुःखदायी थयुं. वे मुनि हार लइने चाल्या तेने केटलिक भूमिका पर्यंत पोहोचाड वा सुविष्ट याव्यो मार्गमां सुविष्टें मुनिने तत्त्व पुढयुं तेवारें मुनि बोल्या हे महाभाग ! सुनिने गोचरीनी एकाग्रतामांहे धर्मकथा कहेवी निषेध ने एटला माटे अवसरें उपासरे यावीने तत्त्व सांजलजो सुविष्ट पण अवस रें तिहां जइ मुनिपासें यावी वांदीने समीपें बेठो एटले मुनि बोल्या धर्म वे प्रकारat a एक साधुनो ने बीजो श्रावकनो धर्म, तेमां साधुनो धर्म पालवो इष्कर बे ने श्रावकनो धर्म पालवो सुकर वे ते समकेत गुणपू र्वक बारव्रतरूप यथाशक्तियें पालिये इत्यादि, ते साधुयें विस्तारपणे धर्म

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