Book Title: Jain Katha Ratna Kosh Part 04
Author(s): Bhimsinh Manek Shravak Mumbai
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ अर्थदीपिका, अर्थ तथा कथा सहित. ४४७ हवे पडिक्कमणानुं फल कहे जेः॥ आवस्सएण एएण, सावन जवि बदुर होई॥ उकाण मंतकिरियं, काहीअचिरेण.कालेण ॥४॥ अर्थः- यद्यपि श्रावकजे ते बदुरज ने एटले बध्यमान कर्मरूप रज नो धणी ने अथवा बहुरत एटले विविधप्रकारना सावध पापारंननेविषे अतिशय आसक्त ने तोपण आवश्यक करवेकरीने एटले सामायिक, चो वीसबो, वंदनक, पडिक्कमj, काउसग्ग अने पञ्चरकाण रूप षडविध नावा वश्यकेंकरीने दंतधावनादिक करवू एटले षविध नावावश्यक तऽप दांतण करवेकरीने शुक्ष थावं पण दंतधावनादिक इव्यावश्यकें करी नही. उःख ते शरीरसंबंधी तथा मनसंबंधी सुःख तेने अंतक्रिया एटले क्य करे अचिरेण कालेण एटले स्वल्पकालेंज अर्थात तेहजनवमां क्य करे। हां जोपण कुःखनी अंतक्रियानुं अंतर रहित हेतु ते यथारख्यात चारित्र क हियें तेना लाजनेविषेज अंतक्रियाथाय ते शहां श्रावक परंपरायें मोदना हेतु एवा सामायिकादिक आवश्यकने आत्मनावें करीने नावनी विशुद्ध तायें करतो थको नावचारित्र प्रगट करीने तन- मोद जाय. सामायिकादिक आवश्यकेंकरीज गृहस्थनेपण नावनी विशुधियें जरत चक्रवर्तिनी पेरें केवलज्ञान पामे अहो नव्यप्राणी ! सांजलो एक सामा यिक यावश्यकना पदमात्र आलंबन पामीने अनंता जीव मोड़ पोहोता ॥ यतः ॥ जोग जिणसासणम्मि, उरकरकयं पजंता ॥ इकिकम्मि अणं ता, वदंता केवलंपत्ता ॥१॥ नावार्थः-योगें योगें श्रीजिनशासननेविषे दुःखनो क्य प्रयुंजता एकेक योगें वर्त्तता अनंता जीव केवलज्ञान पाम्या ए एकतालीशमी गाथानो अर्थ कह्यो ॥ ४१ ॥ हवे मन वचन कायानी प्रवृत्ति अतिसूक्ष्म ने अने इंडियरूप तुरंगम अति चपल ने तथा जीवने अत्यंत प्रमादनु बदुलपणुं वे माटे केटलाएक अतिचार अपराध स्मृतिमाहे नहीं आव्या होय विसर्जन थया होय परं तु ते सर्व बालोववा योग्य जे जे कारणे नगवाननां वचन ले के हे गौत म ! प्रायश्चितनां ठेकाणां असंख्याता ले तेमांहे एकपण आलोयाविना रहे

Loading...

Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477