Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 4
________________ जैनहितैषी mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm 9759 (४) राज-विभवसुख छोड़कर, औरोंके हित-हेतु। .. सतत 'सत्य' घोषित किया, हे भवसागर-सेतु। किये पुनीत विहारसे, नव नव नाना देश। प्रभो, सुनाया सुखद अति, स्वार्थरहित संदेश ॥ इस कारण तव पद निकट, प्रार्थनीय नहिं और । चितमें नित चित्रित रहे, यह चरित्र सिरमौर ॥ . (७) जिसके पुण्य-प्रसादसे, यह जीवन-प्रासाद । परहित-रत उन्नत विमल, बने विगत-अवसाद ॥ नहीं चाहिए स्वार्थयुत, स्वर्गभोग भी हेय। पर-सेवाव्रत ही रहे, इस जीवनका ध्येय ॥ तव पुनीत जीवनचरित, महावीर भगवान् । सब जगका मंगल करे, बन आदर्श महान् ॥ =ere:వటenteresteelevisite teestutter ई उस बलकी दरकार । हूँ fianRHEORIEramgramrETENTARVEERTerands गीत। .. मुझे है स्वामी, उस बलकी दरकार। (टेक) अड़ी खड़ी हों अमित अड़चनें, आड़ी अटल अपार । तो भी कभी निराश निगोड़ी, फटक न पावे द्वार ॥ १ जिस चरित्रके । २ जीवनरूपी महल। ३ विषाद या नाशरहित । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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