Book Title: Jain Granth Sangraha Part 02 Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta Publisher: Pushya Swarna Gyanpith Jaipur View full book textPage 6
________________ प्रचलित व प्रसिद्ध दृष्टातों और कथाओं का भरपूर उपयोग किया, इससे लोक रुचि सहज आकर्षित और जागृत हुयी और इसका बहुत अच्छा परिणाम प्राप्त हआ। भगवान महावीर से लेकर अब तक हजारों छोटी-बड़ी कथायें विविध भाषाओं और रूपों में लिखी गई जिनके प्रकाशन एवं प्रचार से सहज ही लोक कल्याण हो सकता है। हमारा ध्यान उनकी ओर इतना नहीं गया, जितना जाना चाहिये था। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश. पुरानी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती तथा मराठी, तमिल और कनाड़ में लिखे हुए चरित्र-काव्य एवं कथा-ग्रन्थ और कथा-संग्रह काफी प्रकाशित भी हुये हैं । और अप्रकाशित तो उनकी अपेक्षा सौ गुने होंगे । पर वे ग्रन्थ भाषा और शंली की भिन्नता के कारण वर्तमान जनता को इतना अधिक आकर्षित नहीं कर सकते । इसलिये नवीन भाषा, शैली में कहानी, उपन्यास, एकांकी, नाटक आदि रूप में ग्रन्थ लिखे जाने बहुत ही आवश्यक हैं गुजराती में 'जय भिक्खू' मोहनलाल धामी आदि कई समर्थ लेखकों द्वारा ऐसा प्रयत्न हुआ है और उनकी रचनाओं का जैन समाज में ही नहीं, जैनेतर समाज में भी बहुत आदर हुआ है और लोक प्रियता प्राप्त हुयी है। पर हिन्दी में अभी तक ऐसा प्रयत्न नहींवत् हुआ है। इसलिये ऐसे गुजराती साहित्य के अनुवाद और स्वतन्त्र लेखन की बहुत ही आवश्यकता प्रतीत होती है। महापुरुषों की जीवनियाँ तो जीवन निर्माण में बहुत ही उपयोगी होती हैं। उनके आदर्श जोवन को पढ़-सुनकर बड़ी सात्विक प्रेरणा मिलती है। महापुरुष बनने की क्या हस्तगत होती है अतः बालकों को अधिकाधिक बतलाई जाय, जिससे उनका जीवन आदर्श एवं महान बन जावे। . अब से ५० वर्ष पहले शतावधानी पं० धीरजलाल शाह का ध्यान बालकोपयोगी जैन कथाओं को उन्हीं के अनुरूप भाषा व शैली में लिखने और प्रकाशित करने की ओर गया। इसी के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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