Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha 01
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ (8) प्रशस्ति संग्रह में ग्रंथकर्ता इन विद्वानों श्रादिका संक्षिप्त परिचय क्रमसे नीचे दिया जाता है: इस प्रशस्तिसंग्रहकी प्रथम प्रशस्ति 'न्यायविनिश्चयविवरण' की है, जिसके रचयिता श्राचार्य वादिराज हैं । वादिराज द्राविडसंघस्थित नन्दिसंघकी रुगल नामक शाखाके विद्वान थे, श्रीपालदेवक प्रशिष्य तथा मतसागरके शिष्य थे । सिंहपुराधीश चालुक्य राजा जयसिंहकी सभाके वे प्रख्यातवादी और उक्त राजाके द्वारा पूजित थे । प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हींके राज्यकालमें रचा गया है। प्रशस्तिमें उनकी विजय कामना की गई है। इस ग्रंथ अतिरिक्त श्रापकी अन्य रचनाएँ भी उपलब्ध हैं, जो प्रायः प्रकाशित हो चुकी हैं, और वे हैं -प्रमाण निर्णय, पार्श्वनाथचरित्र, यशोधरचरित्र, एकीभावस्तोत्र, अध्यात्माष्टकस्तोत्र । इनके सिवाय मल्लिषेण प्रशस्ति नामक शिलावाक्य में ' त्रैलोक्य दीपिका' नामक ग्रन्थका भी नामोल्लेख मिलता है जो अभी तक अनुपलब्ध है । चार्य वादिराजका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध है, क्योंकि उन्होंने अपना पार्श्वनाथ चरित्र शक सं० १४७ (वि० सं० १०८२) में बनाकर समाप्त किया है। दूसरी प्रशस्ति 'धर्मरत्नाकर' की है। जिसके कर्त्ता श्राचार्य जयसेन । जयसेनने प्रशस्तिमें अपनी जो गुरु परम्परा बनलाई है वह यह है कि जयसेनके गुरु भावसेन, भावसेनके 'गुरु गोपसेन, गोपसेनके गुरु शांतिषेण और शांति के गुरु धर्मसेन । ये सब प्राचार्य लाडबाड संघ के विद्वान हैं, जो बागड़ संघका ही एक उपभेद है । बागडसंघका नाम 'वाग्वर' भी है और वह सब वागडदेशके कारण प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है, और इसलिये देशपरक नाम है । श्राचार्य जयसेनका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका मध्य भाग जान पडता है । यह श्राचार्य अमृतचन्द और यशस्तिलकचम्पूके कर्त्ता सोमदेव (शकः सं०८८१ = वि० सं० १०१६ ) से बादके विद्वान हैं । धर्मरत्नाकरके अंतमें पाई जाने वाली प्रशस्तिका अन्तिम पद्य लेखकोंकी कृपासे प्रायः छूट

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