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दशमी कथा, श्रवण द्वादशी कथा, रत्नत्रय व्रतकथा, अन त व्रतकथा, अशोकरोहिणीकथा, तपोलक्षणपंक्तिकथा, मेरुपंक्तिकथा, विमानपंक्तिकथा, और पल्यविधानकथा की हैं, जिनके कर्ता देशयती ब्रह्म श्रुतसागर हैं, जो मूलसंध सरस्वतीगच्छ और बनास्कारगणके विद्वान थे। इनके गुरुका नाम विद्यामन्दि था जो भट्टारक पदमनन्दीके प्रशिप्य और देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे । और नो भ. देवेन्द्र कीर्तिके बाद भट्टारक पद पर श्रामीन हुए थे। विद्यानन्दीके बाद उक पट्ट पर क्रमशः मल्लिभूषण और लचमीचन्द प्रतिष्ठित हुए थे। इनमें श्री मल्लिभूषण गुरु श्रु तसागरको आदरणीय गुरु भाई मानते थे। इनको प्रेरणासे श्रुतमारने कितने ही ग्रन्थोंकी रचना की है। ये सब सूरतको गही. के भहारक हैं। ___ ब्रह्मश्रुतसागरने अपनी किमी कृतिमें रचनाकाल नहीं दिया । जिससे यह बतलाया जा सके कि उन्होंने अमुक समयसे लेकर अमुक समय तक किन-किन ग्रन्थोंकी रचना किस क्रमसे की है । किन्तु अन्य दूसरे साधनोंक प्राधारसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि ब्रह्म तसागरका समय विक्रमकी सोलहवीं शताब्दीका मध्य भाग है अर्थात् वे वि० सं० १५०० से १५७५ के मध्यवर्ती विद्वान जान पड़ते हैं। इसके दो श्राधार है । एक तो यह कि भट्टारक विद्यानन्दीके वि० सं० १४६१ से वि० सं० १५२३ तकके ऐसे मूर्तिलेख पाये जाते हैं जिनकी प्रतिष्ठा भ० विद्यानन्दीने स्वयं की है । अथवा जिनमें भ० विद्यानन्दीके उपदेशसे प्रतिष्ठित होनेका समुल्लेख पाया जाता है। और मल्लिभूषण गुरु वि० सं० १५५४ या उसके कुछ समय बाद तक भ० पट्ट पर आसीन रहे हैं । ऐसा सूरत श्रादिके कतिपय मूर्तिलेखांसे स्पष्ट जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि भ० विद्यानन्दीके शिष्य श्रुतमागरका प्रायः यही समय होना चाहिये।
दूसरा प्राधार उनके द्वारा रचित 'पल्यविधान कथा' है, जिसे उन्होंने ईडरके राजा भानु अथवा रावभाणजीके राज्यकालमें रचा है। उसकी प्रशस्तिके पद्यों में लिखा है कि-'भानुभूपतिकी भुजारूपी तलवारके जल