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विजयसारके 'दिविज' नगरके दुर्गमें स्थित देवालयमें जब अरिकुल शत्रु सामन्तसेन हरितनुका पुत्र अनुरुद्ध पृथ्वीका पालन करता था, जिसके राज्यका प्रधान सहायक रघुपति नामका महात्मा था | उसका पुत्र धन्यराज ग्रंथ कर्ताका परम भक्त था उसीकी सहायतासे सं० १६३२ में हुई है ।
दूसरे ग्रन्थमें जैनियोंके वें तीर्थंकर चंद्रप्रभ भगवानका जीवन परिचय दिया हुआ है। इस प्रथमें कविने भद्रबाहु, समंतभद्र, अकलंकदेव, जिनसेन, गुणभद्र और पद्मनंदी नामके पूर्ववर्ती विद्वानोंका स्मरण किया है यह ग्रंथ सात सर्गों में समाप्त हुआ है 1
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थकी अंतिम प्रशस्तिमें बतलाया गया है कि बृहद्गुर्जरवंशका भूषण राजा तारासिंह था जो कुम्भ नगरका निवासी था और दिल्लीके बादशाह द्वारा सम्मानित था । उसके पट्ट पर सामंतसिंह हुआ जिसे दिगम्बराचार्यक उपदेशसे जैनधर्मका लाभ हुआ था । उसका पुत्र पद्मसिंह हुआ जो राजनीति में कुशल था, उसकी धर्मपत्नीका नाम 'वीणा' देवी था, जो शीलादि सद्गुणोंसे विभूषित थी । उसीके उपदेश एवं अनुरोधले उक्त aft प्रथकी रचना हुई है। प्रशस्तिमें रचनाकाल दिया हुआ नहीं है । इसलिये यह निश्चितरूपसे बतलाना कठिन है कि शिवाभिरामने इस ग्रंथकी रचना कब की है । पर ऊपरको प्रशस्तिसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि sent रचना विक्रमकी १७ वीं शताब्दीके अंतिम चरण में हुई है।
५१ वीं और १२१ वीं प्रशस्तियाँ क्रमसे पार्श्वपुराण और वृषभदेवपुराणकी हैं। जिनके कर्ता भट्टारक चन्द्रकीर्ति हैं जो सग्रहवीं शताब्दीके विद्वान थे । इनके गुरुका नाम भ० श्रीभूषण था । ये ईडरकी गद्दीके भट्टारक थे । उस समय ईडरकी गडीके पट्टस्थान सूरत, डूंगरपुर, सोजित्रा,
र और कल्लोल श्रादि प्रधान नगरोंमें थे । उनमेंसे भ० चंद्रकीर्ति किस स्थानके पट्टधर थे यह निश्चित रूपसे मालूम नहीं हो सका, पर जान पड़ता है कि वे ईडरके समीपवर्ती किसी स्थानके पट्टधर थे । भ० चंद्रकीर्ति विद्वान् होनेके साथ कवि थे और प्रतिष्ठादि कार्योंमें भी दक्ष थे। इन्होंने