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है कि यह ग्रन्य १२वी १३वीं शताब्दीको रचना है। क्योंकि 'धर्मरत्नकर' ग्रन्थके कर्ता जय सेनने जो भाव सेनके शिष्य थे अपना उक्त ग्रन्थ वि० सम्बर १०५५ में बना कर समाप्त किया है। इससे अधिकसे अधिक सौ या सका सौ वर्ष बाद सिद्धान्तसारकी रचना नरेन्द्रसेनने की होगी। ग्रन्थ इस समय पामने नहीं है इसलिए उसका अान्तरिक परीक्षण नहीं किया जा सका और न बिना परीक्षण झप-पट कोई नतीजा ही निकाला जा सकता है। ७७वीं प्रशस्ति 'द्रौपदी नामक प्रबन्ध' की है, जिसके कर्ता जिनसेनसूरि हैं। जिनसेन नामके अनेक विद्वान हुये हैं उनमें प्रस्तुत जिनसेन किसके शिष्य थे, कहांके निवासी थे और कब हुए हैं ? इस विषयमें बिना किसी साधन सामग्रीके कुछ नहीं कहा जा सकता । ग्रन्थमें रचनाकाल भी दिया हुआ नहीं है और न इस प्रन्थकी रचना इतनी प्रौढ़ ही जान पड़ती है, जिससे
आदिपुराणके कर्ता भगवजिनसेनको द्रौपदी-प्रबन्धका रचयिता ठहराया जा सके। यह कृति तो उनसे बहुत बादक किमी जिनसेन नामक विद्वान द्वारा रची गई है। __७८वीं प्रशस्ति 'यशोधरचरित्र' की है, जिसके कर्ता भहारक सोमकीति हैं, जिनका परिचय ४२ नं० की प्रशस्तिमें दिया गया है।
७६ और ८०वीं प्रशस्तियों क्रमशः वर्द्धमान चरित और 'शान्तिनाथ पुराण' की हैं, जिनके कर्ता कवि असग हे । इनके पिताका नाम 'पटुमांत' था जो गुद्व, सम्यक्त्वले युक्र श्रावक था पार माताकानाम वैरित्ति' था, वह भी शीलादिसद्गुणोंके साथ शुद्ध सम्यक्त्वसे विभूषित थी । वमानचरित्र की दूसरी प्रशस्ति श्रारा जैन सिद्धान्तभवनकी ताडपत्रीय प्रति की है। इस ग्रन्थकी प्रथम व द्वितीय प्रशस्तियोंको सामने रखकर पढ़नेसे यह जान पडता है कि वास्तवमें ये दोनों प्रशस्तियाँ एक हैं-द्वितीय प्रशस्ति प्रथम प्रशस्तिका ऊपरी भाग है। वे दो अलग अलग प्रशस्तियाँ नहीं हैं। संभवतः वे लेखकों की कृपाले किसी समय जुदी पड़ गई हैं।
द्वितीय प्रशस्तिके उपरके दोनों पद्योंमें बतलाया गया है कि पुरुरवा