Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha 01
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 347
________________ १७. जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसग्रह सोसो तस्स धराधराणमि उ(भिणश्रो ?) सत्थत्य-णिहिस्सणो णामेणं सिरिदुग्गदेवसुकई चारित्तचूडामणी। कित्ती जस्स तिलोयमंडवणलं सडाइज(जा)णं(?)ट्टिया सन्वाणं सुहि-सत्यद सुविदिदं तेणग्यकडं कयं ॥ इदि मिरि दुग्गदेव-विर इयं अग्घकडं समत्तं । १२८. परमागमसार ( श्रुतमुनि) भाविभाग : घाइ-च उक्क-विरहिया अगंत-णाणाइ-गुगा-गण-समिद्धा। चदक कोडि-भासिद-दिव्वंगजिणा जयंतु जये ॥१॥ दस सहजादादिमया घायिक्खयदो दु संभवा दस हि । देवेहि कयमाणा चोद्दस सोहंति वीरनिणे ||२|| दिव्वझुणो सु-दुदहिं छत्तत्तय सिहविट्ठरं चमरं । राति जिणे वीरे भावलयमसोग कुसुमविट्री य ॥३॥ (आगे सिद्धादि पंचपरमेष्ठियोकी स्तुति की गई है।) एवं पचगुरुण वंदित्ता भविय-णिवह बोहत्थ । परमागमस्स सार वोच्छे हं तच्च-सिद्धियर ॥८॥ पंचत्यिकाय दव्वं छक्कं तच्चाणि सत्त य पदत्या । एव बंधी तक्कारण मोवो तस्कारणं चदि ॥६॥ अहियारो अष्टविहो जिणवयण-शिरूविदो मवित्थरदो। वोच्छामि समासेग य सुणुय जणा दत्तचित्ता हु॥१०॥ मन्तभाग: जो परमागमसारं परिभावह चत्त-रागदोसो ह। सो विरहिय-परभावो णिज्वाणमणुत्तरं लहइ ।।२२२॥ इदि परमागमसारं सुयमुणिणा कहियमप्प-बोहेण । सुदणि उणा मुणिवसहा दोसचुदा सोहयंतु फुडं ॥२२॥

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