Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha 01
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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१८८
अन्तभाग :
जैनग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह
इय सुंदराई वीरभद्दभणियाई पवयणाहिंतो । चिरमुचिणि सुए एसा रहया आराहरणापडिया || ८५॥ वाणमाणुपुत्री गाहद्धपयाण पाययाण च । कत्थई कहिंचि रइया पुव्यपसद्धारा समईए ||६||
राहणापत्थंमि एत्थ सत्यंमि गंध (थ) परिमाणं । नाई नवमयाई (६६० ) त्या गाहमि गाहाणं ॥८॥ विक्रमनिवकाला अत्तरि मे ममासहस्संमि (१००८) । एसा सव्य गिहिया गहिया गाहाहि सरलाहि ॥ ८८ ॥
मोहे मंदमइणा इमंमि जमणागमं मए लिहिय । त महरिणो मरिसितु हवा सोहिंतु करणाए ||८६ ॥ भवगणभमरणरीणा लहति निव्वुइसुह जमल्लीणा । तं कष्पमयं नदउ जिगसासरणं सुइरं ||६|| [इति] श्राराधनापताका कृतिरियं श्रीवीरभद्राचार्यस्य || ||
१२६. रिष्ट समुच्चय- शास्त्र ( दुर्गदेव )
श्रादिभाग :
पण मंत-सुरासुर-मउलि-ग्यण - वर- किरण - कंति- वित्थुरिश्रं । वीर-जि-पाय- जुलं गमिऊण भरणेमि रिट्ठाई ||२१||
अन्तभाग:
जय 3. जियमाणो संजमदेवो मुणीसरो इत्थ । तह विहु संजमसेो माहवचदो गुरु तह य || २५४ ॥ रइयं बहु सत्थत्थं उवजीवित्ता हु दुग्गदेवेण । रिgenerयसत्थं वयण [ सजगाइ ] देवस्य || २५५॥ जं इह किपि विरि (दि) प्रयागमाणेण श्रहव गव्वेण । तं रिट्ठ- सत्य - उणा सोहेबि महीइ पयडंतु || २५६ ||

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