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१०५वीं और १०६ वीं प्रशस्तियाँ 'रात्रिभोजन त्याग और 'नेमिनाथ पुराणकी हैं, जिनके कर्ता ब्रह्मनेमिदत्त हैं । ब्रह्मदत्तका परिचय वीं प्रशस्ति में दिया गया है ।
१०७ वीं प्रशस्ति 'समवसरण पाठ' की है, जिसके कर्ता प० रूपचन्द्रजी हैं। जो विक्रमकी १७वीं शताब्दीके विद्वान थे और भट्टारकीय पंडित होनेके कारण 'पाडे' की उपाधि से अलंकृत थे । आपको हिन्दीके सिवाय संस्कृत भाषाके विविध छन्दोंमें कविता करनेका अच्छा अभ्यास था । आपका जन्म स्थान कुह नामके देशमें स्थित 'सलेमपुर' था । आप अग्रवाल वंशके भूषण गर्गगोत्री थे । आपके पितामहका नाम मामट और पिता का नाम भगवानदास था। भगवानदासकी दो पत्नियां थीं, जिनमें प्रथमसे ब्रह्मदास नामके पुत्रका जन्म हुआ। दूसरी 'चाचो' से पांच पुत्र समुत्पन्न हुए थे --- हरिराज, भूपति, अभयराज कीर्तिचन्द्र और रूपचन्द्र इनमें अन्तिम रूपचन्द्र ही प्रसिद्ध कवि थे और जैन सिद्धान्तके अच्छे मर्मज्ञ विद्वान थे । वे ज्ञान-प्राप्ति के लिये बनारस गए और वहांसे शब्द और रूप सुधारका पानकर दरियापुरमें लौटकर आये थे । दरियापुर वर्तमान में बाराबंकी और अयोध्याके मध्यवर्ती स्थानमे बसा हुआ है, जिसे दरियावाद भी कहा जाता है। वहां श्राज भी जैनियोंकी बस्ती है और जिनमन्दिर बना हुआ है ।
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बनारसीदासजीने अपने 'अर्धकथानक' मे लिखा है कि सवत् १६७२ मे आगरा में पं० रूपचन्द्रजी गुनीका आगमन हुना और उन्होंने तिहुना साहूके मन्दिर में डेरा किया । उस समय आगरा में सब अध्यात्मियोंने मिलकर विचार किया कि उक्त पांडेजीसे श्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा संकलित गोम्मटसार ग्रन्थका वाचन कराया जाय । चुनांचे पंडितजीने गोम्मटसार ग्रन्थका प्रवचन किया और मार्गणा, गुणस्थान, जीवस्थान तथा कर्मबन्धादिके स्वरूपका विशद विवेचन किया। साथ ही, क्रियाकाण्ड और निश्चयनय व्यवहारनयकी यथार्थ