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कथनीका रहस्य भी समझाया और यह भी बतलाया कि जो नयदृष्टिसे विहीन हैं उन्हें वस्तुतत्वकी उपलब्धि नहीं होती तथा वस्तु स्वभावसे रहित पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकते। पांडे रूपचन्द्रजीके वस्तुतत्त्व विवेचनसे पं० बनारसीदासजीका वह एकान्त अभिनिवेश दूर हो गया, जो उन्हें और उनके साथियोंको 'नाटक समयसार' की रायमल्लीय टीकाके अध्ययनसे हो गया था और जिसके कारण वे जप, तप, सामायिक, प्रतिक्रमणादि क्रियाश्रोंको छोड़कर भगवानको बढा हुआ नैवेद्य भी खाने लगे थे । यह दशा केवल बनारसीदामजीकी ही नहीं हुई किन्तु उनके साथी चन्द्रभान, उदयकरन और थानमल्लकी भी हो गई थी । ये चारों ही जने नग्न होकर एक कोठरीमें फिरते थे और कहते थे कि हम मुनिराज हैं । हमारे कुछ भी परिग्रह नहीं है, जैसाकि अर्ध कथानकके निम्न दोहे से स्पष्ट है :--
"नगन होहिं चारों जनें, फिरहिं कोठरी मांहि । कहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नांहि ॥"
पांडे रूपचन्द्रजीके वचनोंको सुनकर बनारसीदामजीका परिणमन और ही रूप हो गया। उनकी दृष्टिमें सत्यता और श्रद्धामें निर्मलताका प्रादु भाव हुआ । उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उन्होने उसे दूर किया। उस समय उनके हृदयमें अनुपम ज्ञानज्योति जागृत हो उठी थी और इसीसे उन्होंने अपनेको 'स्याद्वाद परिणति से परिणत' बतलाया है ।
सं० १६६३ में ६० बनारसीदासजीने श्राचार्य अमृतचन्द्रके 'नाटक समयसारकशका' हिन्दी पद्यानुवाद किया और संवत् १६६४ में पांडे रूपचन्द्रजीका स्वर्गवास हो गया १ ।
१ - अनायास इसही समय नगर आगरे थान । रूपचन्द्र पंडित गुनी आयो आगम जान ||६३०॥ तिनसाहु देहरा किया, तहां श्राय तिन डेरा लिया ।
सब अध्यात्मीकियो विचार, ग्रन्थ वचांयो गोम्मटसार ॥६३१॥ तामें गुनधानक परवान, को ज्ञान अरु क्रिया विधान ।