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अर्ध कथानकके इस उल्लेखसे मालूम होता है कि प्रस्तुत पांडे रूपचन्द्र हो उक 'समवसरण' पाठके रचयिता हैं । चूँकि उक्त पाठ भी संवत् १६६२ में रचा गया है और पं० बनारसीदासजीने उक्त घटनाका समय भी अर्ध कथानकमें सं० १६६२ दिया है, इससे मालूम होता है कि उम्र पाठ गरेकी उपर्युक्त घटनासे पूर्व ही रचा गया है। इसीसे प्रशस्ति में उसका कोई उल्लेख नहीं है । अन्यथा पांडे रूपचन्द्रजी उस घटनाका उल्लेख उसमें अवश्य ही करते। अस्तु, नाटक समयसारमें इन्हीं रूपचन्द्रजीका समुल्लेख किया गया है वे संवत् १६६२ के रूपचन्द्र जोसे भिन्न नहीं है ।
इनकी संस्कृत भाषाको एक मात्र कृति 'समवसरण पाठ' प्रथवा 'केवलज्ञानकल्याणाचा' है । इसमें जैन तीर्थंकरके केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर जो अन्तर्बाह्य विभूति प्राप्त होती है अथवा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायरूप घातिया कर्मोंके विनाशसे अनन्तचतुष्टयरूप श्रात्म-निधिकी समुपलब्धि होती है उसका वर्णन है। साथ ही बाह्यमें जो समवसरणादि विभूतिका प्रदर्शन होता है वह सब उनके गुणातिशय अथवा पुण्यातिशयका महत्व है - वे उस विभूतिसे सर्वथा अलिप्त अंतरीक्ष विराजमान रहते हैं और वीतराग विज्ञानरूप आत्मनिधिके द्वारा जगतका कल्याण करते हैं - संसारके दुखी प्राणियोको छुटकारा पाने और शाश्वत सुख प्राप्त करनेका सुगम मार्ग बतलाते हैं ।
जो जिय जिस गुनथानक होइ, जैसी क्रिया करें सब कोई ॥६३२ ॥ भिन्न भिन्न विवरण विस्तार, अन्तर नियत बहुरि व्यवहार । सबकी कथा सब विध कही, सुनिकै संसै कछु ना रही ॥६३३॥ तब बनारसी रहि भयो, स्याद्वादपरिनति-परिनयो । पांडे रूपचन्द्र गुरुपास, सुन्यौ ग्रन्थ मन भयौ हुलास ॥ ६३४ ॥ फिर ति सबै बरस के बीच, रूपचन्द्रकौं श्रई मीच । सुन-सुन रूपचन्द्रके बैन, बनारसी भयौ दिन जैन ||६३५ ॥