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है । इस ग्रन्थको श्राद्य प्रशस्तिके २२वे पथमें ग्रन्थ की रचनाका प्रायः पूरा इतिवृत्त' बतलाया गया है कि देवीके श्रादेशसे 'ज्वालिनीमत' नामका एक ग्रन्थ 'मलय नामक दक्षिण देशके हेम नामक ग्राम में द्रवणाधीश्वर हेलाचार्य ने बनाया था । उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और बीजाव नामके हुए, और 'सांतिरसव्वा' नामक आर्यिका तथा 'विरुवट्ट' नामक क्षुल्लक भी हुआ इस गुरूपरिपाटी एवं अविच्छिन्न सम्प्रदायसे आया हुआ मन्त्रवादका यह ग्रन्थ कंदर्पने जाना और उसने भी अपने पुत्र गुणनन्दी नामक मुनिके प्रति व्याख्यान किया उन दोनोंके पास रहकर इन्दनन्दीने उस मन्त्र शास्त्रका ग्रन्थतः और अर्थतः सविशेषरूपसे ग्रहण किया । इन्द्रनन्दीने उसक्लिष्ट प्राचीन शास्त्र को हृदयमें धारणकर ललित आर्या और गीतादि छन्दोंमें हेलाचार्य के उक्त अर्थको ग्रन्थ परिवर्तनके साथ सम्पूर्ण जगतको विस्मय करने वाले 'भव्य हितंकर' इस ग्रन्थ की रचना मान्यखेट ( मलखेडा) के कटकमें राजा श्रीकृष्ण के राज्यकाल में शक सं० ८६१ ( वि० संवत् ६६६ ) में समाप्त की थी। इससे यह इन्द्रनन्दी विक्रमकी १०वीं शताब्दी के उत्तरार्धके विद्वान हैं । इस नामके और भी
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अनेक विद्वान हुए हैं। परन्तु यह इन्द्रनन्दी उन सबमें ग्राचीन और प्रभावशाली जान पड़ते हैं । गोम्मटसारके कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्तीने जिन इन्द्रनन्दीका 'श्रुतसागर के पारको प्राप्त' जैसे विशेषणोंक द्वारा स्मरण किया है वे इन्द्रनन्दी संभवतः यही जान पड़ते हैं, जो उनके दादागुरु थे । पर वे इन्द्रनन्दी इनसे भिन्न प्रतीत होते हैं जो इन्द्रनन्दी संहिता ग्रन्थके कर्ता और नीति शास्त्र नामक संस्कृत ग्रन्थके कर्ता हैं । और यह इनसे बाद विद्वान जान पड़ते हैं ।
१२वीं प्रशस्ति 'स्वर्णाचलमाहात्म्य' की है जिसके कर्ता दीक्षित देवदत्त हैं जिनका परिचय ४१ वीं प्रशस्तिमें दिया गया है।
६३वीं और १७०वीं प्रशस्तियाँ क्रमशः 'धर्मचक्र पूजा तथा वृहत् सिद्धचक्रपूजा' की है, जिनके कर्ता बुधवीरु या वीर कवि हैं । इनका वंश