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दूसरी प्रशस्ति 'तत्त्वार्थवृत्तिपद विवरण' की है जो आचार्य देवनन्दी या पूज्यपाद द्वारा गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गई 'तत्त्वार्थवृत्ति' (सर्वार्थसिद्धि) नामकी एक अर्थ बहुल गंभीर व्याख्या है जिसके विषम-पदोंका संक्षिप्त अर्थ उक्त टिप्पणमें दिया हुआ है। तीसरी प्रशस्ति श्राचार्य कुन्दकुन्द के पंचस्थिपाहुड या पंचास्तिकाय की प्रदीप नामक टीका ग्रन्थ है । चौथी प्रशस्ति श्राचार्य गुणभद्रके आत्मानुशासनके 'तिलक' नामक टिप्पण की है । पांचवीं प्रशस्ति 'आराधनाकथा - प्रबन्ध' नामक गद्यकथाकोशकी है और छठवीं प्रशस्ति श्राचार्य कुन्दकुन्दके प्रवचनसार नामक ग्रन्थ पर लिखे गये 'प्रवचन - सरोजभास्कर' नामक टिप्पण की है। इन छहों टीकादि ग्रन्थोंके कर्ता आचार्य प्रभाचंद्र हैं, जो पद्मनंदी सैद्धान्तिकके शिष्य थे 8 और दक्षिया देशसे श्राकर राजा भोजकी सुप्रसिद्ध धारानगरीके निवासी प्राचार्य माणिक्यनन्दीके, जो न्यायशास्त्र में पारंगन विद्वान थे, न्यायविद्याके शिष्य हुए थे 1 माणिक्यनंदी अनेक शिष्य उस समय धर्म, न्याय, दर्शन, व्याकरण और काव्य अलंकारादिक विषयोंका अध्ययन-अध्यापन कर रहे थे । उनमें 'सुसरा चरिउ' के कर्ता श्रीनन्दीके शिष्य नयनन्दी भी आचार्य माणिक्यनन्दीके प्रथम विद्याशिष्य थे । इस समय माणिक्यनन्दीकी एक महत्वपूर्ण सूत्रात्मक कृति उपलब्ध है, जो उनके दर्शनशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् होनेकी सूचना करती है । उस समय तक दर्शनशास्त्रपर ऐसी अनमोल बहुअर्थ - मूलक सूत्ररचना जैन समाजमें नहीं रची गई थी, जिसकी पूर्ति श्राचार्य माणिक्यनन्दीने की है और जिसका संक्षिप्त परिचय श्रागे दिया गया है । श्राचार्य माणिक्यनन्दीके गुरु त्रैलोक्यनन्दी थे, जो शेष ग्रन्थोंमें पारंगत थे और गणी रामनंदोके शिष्य थेx |
ॐ भव्याम्भोजदिवाकरो गुणनिधिर्योऽभूज्जगद्भूषणः, सिद्धान्तादिसमस्तशास्त्रजलधिः श्रीपद्मनन्दि प्रभु । तच्छ्रिप्यादकलङ्कमार्गनिरतात्सन्न्यासमार्गोऽखिलः, सुन्योऽनुपमप्रमेयरचितो जातः प्रभाचन्द्रतः ॥ x गरिंदामरिंदाहिया दवंदी, हुआ तस्स सीसो गणी रामशंदी |
-न्याय कुमुदचन्द्र