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(४५) शुभचन्द्रदेवः । भ० शुभचन्द्रका यह स्तवन अनेकांत वर्ष १२ किरण १० में प्रकाशित हो चुका है । प्रस्तुत शुभचंद्रका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दी जान पड़ता है, क्योंकि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा त्रिलोकप्रशप्ति नामक प्राकृत ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि करा कर दान करने वाले सज्जनोंकी 'दानप्रशस्तियोंमें, जो पं० मेधावीके द्वारा संवत् १५१८ तथा १५१६ की लिस्वी हुई हैं। उनमें भट्टारक शुभचन्द्र के पट्ट पर भ० जिनचन्द्र के प्रतिष्ठित होनेका उल्लेख पाया जाता है। क्योंकि भ० जिनचन्द्रका दिल्ली पट्ट पर सं० १५०७ के करीब प्रतिष्ठित होना पट्टावलियोंमें पाया जाता है, जिससे स्पष्ट है कि भ० शुभचन्द्र संवत् १५०० या उसके ५-६ वर्ष बाद तक उक्त पट्ट पर प्रतिष्ठित रहे हैं । कब प्रतिष्ठित हुए यह विचारणीय है। ___६६वीं प्रशस्ति 'अंजनापवनंजयनाटक' की है जिसके कर्ता कवि हस्तिमल्ल हैं । हस्तिमलके पिताका नाम गोविन्दभट्ट था जो वत्सगोत्री दक्षिणी ब्राह्मण थे। इन्होंने प्राचार्य समन्तभद्रके 'देवागमस्तोत्र' को सुनकर सदृष्टि प्राप्त की थी—पर्वथा एकान्तरूप मिथ्याप्टिका परित्यागकर अनेकांत रूप सम्यक् दृष्टिके श्रद्धालु बने थे। उनके छह पुत्र थे-श्रीकुमार, सत्यवाक्य, देवरवल्लभ, उदयभूषण, हस्तिमल्ल, और वर्धमान । ये छहों ही संस्कृतादि भाषाओंके मर्मज्ञ और काव्यशास्त्रके अच्छे जानकार थे।
इनमें कवि हस्तिमल्ल गृहस्थ विद्वान् थे। इनके पुत्रका नाम पार्श्व पण्डित था। जो अपने पिताके समान ही यशस्वी, शास्त्र मर्मज्ञ और धर्मास्मा था। हस्तिमलने अपनी कीर्तिको लोकव्यापी बना दिया था और स्याद्वाद शासन द्वारा विशुद्ध कीर्तिका अर्जन किया था, वे पुण्यमूर्ति और अशेष कवि चक्रवर्ती कहलाते थे और परवादिरूपी हस्तियोंके लिये सिंह थे। अतएव हस्तिमल्ल इस सार्थक नामसे लोकमें विश्रुत थे । इन्हें अनेक विरुद अथवा उपाधियाँ प्राप्त थीं जिनका समुल्लेख कविने स्वयं विक्रान्तकौरव नाटकमें किया है । 'राजावलीकथे' के कर्ता कवि देवचन्द्रने हस्तमल
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