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कुरु सुत ( इचवाकुवंशी) राजाका पुत्र बतलाया है x श्वेताम्बरीष मतानुसार सुता नहीं, इससे इस ग्रन्थके कर्ता दिगम्बराचार्य हैं ।
छठवीं प्रशस्ति 'भूपालचतुर्विशति-टीका' की है जिसके कर्ता पंडित प्रवर आशाधर हैं जो विक्रमकी १३वीं शताब्दीके प्रतिभासम्पन्न बहुश्रुत विद्वान थे। इन्होंने अपने जीवनका अधिकांश भाग जैनसाहित्यके निर्माण
और उसके प्रचार में व्यतीत किया था। वे संस्कृत भाषाके प्रौढ़ विद्वान थे। सपादलक्ष देशमें स्थित मांडवगढके निवासी थे। सं० १२४६ में जब शहाबुढीनगौरीने देहली और अजमेर पर अधिकार कर लिया, तब वे उस स्थानको छोड़कर सुप्रसिद्ध धारानगरीमें श्रा बसे और वहां उन्होंने ब्याकरण तथा न्यायशास्त्रका अध्ययन किया । धाराके बाद वे नालछे ( नलकच्छपुरस) के नेमिनाथ चैत्यालयमें रहकर पठन-पाठन और माहिन्यकी उपासनामें तत्पर हो गये।
इनकी जाति वघेरवाल थी। इनके पिताका नाम मल्लक्षण, माताका श्रीरनी और धर्मपत्नीका सरस्वती तथा पुत्रका नाम छाहड था । इनके समय में विन्ध्यवर्मा, सुभटवर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल और जैतुगिदेव नामक पांच राजा हुए हैं, जिनका उल्लेख इन्होंने अपने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंमें किया है। पंडित प्राशाधरजीकी कितनी ही कृतियां अप्राप्य हैं, एक दो प्राप्त कृतियाँ भी अभी अप्रकाशित हैं और शेष रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत भूपाल चतुर्विंशतिका टीका विनयचन्द्रके अनुरोधसे लिखी गई है । ये विनयचन्द्र वे ही जान पड़ते हैं जिनके अनुरोधसे पंडितजीने इष्टोपदेशकी x तपः कुठार-क्षत-कर्मचल्लि-मल्लिर्जिनो वः श्रियमातनोतु । कुरोः सुतस्यापि न यस्य जात, दुःशासनत्वं भुवनेश्वरस्य ॥ १६ ॥
मिनिर्वाणकाव्य ॐ यह नालछा या नलकच्छपुर विक्रमकी १३वीं शताब्दी में जनधनसे समाकीर्ण था यह नगर धार और मांडव (मांड) गढ़के मध्यवर्ती स्थानमें बसा हुआ था। इस नगरके चिन्ह अाज भी अवशिष्ट हैं या नहीं, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका।