________________
१४८ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
और नोकषाय के उदय से होने वाला आत्मपरिणाम भाववेद है ।" वेद मार्गणा की अपेक्षा जीव स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अपगतवेदी होते हैं । जो स्त्री आदि तीन प्रकार के वेद रूप परिणाम से रहित आत्म-जन्य सुख के भोक्ता हैं, उन्हें परमागम में अपगतवेदी कहा गया है । २
हिंसा करने की उपमा गोंद
कषाय मार्गणा : आत्मा के भीतरी कलुषित परिणाम कषाय हैं । क्योंकि ये परिणाम सम्यक्त्वादि चारित्र का घात करके आत्मा को कुगति में ले जाते हैं । अकलंकदेव ने भी आत्मा के स्वभाव की वाले क्रोधादि कलुता को कषाय कहा है । ४ पूज्यपाद ने कषाय से दी है । क्योंकि क्रोधादि रूप कषाय के कारण कर्म आत्मा से चिपकते हैं ।" कर्मजन्य होने के कारण कषाय आत्मा का गुण नहीं है । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय बहुधा प्रसिद्ध हैं । इनके अतिरिक्त आगम में अनेक प्रकार की कषायों का निर्देश मिलता है । दूसरी दृष्टि से अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी एवं संज्वलन कषायों का भी निर्देश विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा से किया गया है । पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में बताया है कि इनमें से पहली कषाय सम्यक्त्व और चारित्र का घात करती है, दूसरी देश चारित्र का तीसरी सकल चारित्र का चौथी यथाख्यात चारित्र का घात करती है । ७ जैन आचार्यों ने इन चारों के क्रोधादि चार-चार भेद करके कषायों की संख्या सोलह की है । इनके अतिरिक्त हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद को उमास्वामी, पूज्यपाद आदि ने नोकषाय कहा है । क्योंकि नोकषाय कषाय के समान व्यक्त नहीं होती है और न आत्मा के स्वभाव का घात करती है । "
कषाय मार्गणा की अपेक्षा जीवों के भेद : इस मार्गणा की अपेक्षा जीव पाँच प्रकार के होते हैं— क्रोध कषायी, मान कषायी, माया कषायी, लोभ
१. तत्त्वार्थवार्तिक, २।६।३, पृ० १०९ ।
२. धवला १।१।१।१०१ ।
३. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), २८२ ।
४. तत्त्वार्थवार्तिक २२, ६।४२, ९।७-११ ।
५. यथा— क्रोधादिख्यात्मनः कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्यते ।
- सर्वार्थसिद्धि, ६।४ ।
६. ण कसाओ जीवस्स लक्खणं कम्मजणिदस्स | धवला, ५।१।७।४४ ।
७. सर्वार्थसिद्धि, ८।९।
८. वही, ८1९, तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० ५७४ |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org