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आत्म-स्वरूप-विमर्श : १५१
अवाय के पर्यायवाची नाम बतलाये हैं।' ईहा द्वारा गृहीत अर्थ का भाषादि के द्वारा निर्णय करना अवाय ज्ञान कहलाता है। जैसे 'यह पुरुष दक्षिणी ही होना चाहिए' ऐसा ईहा ज्ञान होने पर 'यह दक्षिणी है' यह निश्चयात्मक ज्ञान अवाय है।
धारणा : षट्खण्डागम में धारणा के लिए धरणी, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा शब्दों का प्रयोग हुआ है । नन्दिसूत्र में उपर्युक्त शब्दों के अलावा धारणा शब्द का भी प्रयोग हुआ है। उमास्वामी ने धारणा को प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम, अवबोध कहा है। पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में धारणा का स्वरूप बताया है कि अवाय द्वारा जानी गयी वस्तु को कालान्तर में कभी नहीं भूलना धारणा है । धारणा कारण और स्मृति कार्य है । तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में मतिज्ञान के ३३६ भेदों का विवेचन उपलब्ध होता है । (२) श्रुतज्ञान
__ मतिज्ञान के बाद होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है । श्रुतज्ञान के लिए श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होना आवश्यक है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये श्रुतज्ञान के दो भेद हैं। इनके भेद-प्रभेदों का विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में उपलब्ध है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी द्रव्यों और उनकी कुछ पर्यायों को जानता है।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अन्तर : मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ही परोक्ष ज्ञान एवं सहभावी हैं । इन दोनों का विषय भी समान है । जहाँ मतिज्ञान है वहाँ श्रुतज्ञान है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान है ।' भट्टाकलंक देव ने उपर्युक्त कथन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि दोनों नारद (चोटी) और पर्वत की तरह
१. तर्कभाषा, १११५ ।। २. (क) सर्वार्थसिद्धि, १११५, तत्त्वार्थवार्तिक, १११५।१३ । ३. षट्खण्डागम, १३।५।५।४० । ४. नन्दिसूत्र, ५४। ५. तर्कभाषा, १११५ ।। ६. सर्वार्थसिद्धि, १११५ । ७. वही, १।१६। ८. श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् । -तत्त्वार्थसूत्र, ११२० । ९. वही, १।२६ । १०. तत्त्वार्थवार्तिक, १।९।१६ ।
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