Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 315
________________ ( ३०० ) नय : वक्ता का अभिप्राय विशेष नय कहलाता है। यह वस्तु के एक देश का ज्ञान कराता है। निग्रह : स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना निग्रह है। निह्नव : ज्ञान का अपलाप करना निह्नव है। पल : काल का प्रमाण विशेष पल है । २४ सेकेण्ड का एक पल होता है। पल्य : एक योजन गोल गहरे गड्ढे में १-७ दिन तक के उत्पन्न भेड़ के बच्चे के बालों के अग्र कोटियों से भर कर सौसौ वर्ष में एक-एक बाल के अग्र भाग के निकालने में जो काल लगता है, उतने काल को पल्य कहते हैं। पुण्य : दया, दानादि रूप शुभ परिणाम पुण्य कहलाता है। पुद्गल : भेद और संघात से पूरण और गलन को प्राप्त होने वाला पदार्थ पुद्गल कहलाता है। प्रदेश : एक परमाणु जितना स्थान घेरता है, उसे प्रदेश कहते हैं। प्रमाणांगुल : यह क्षेत्र प्रमाण का एक भेद है। ५०० उत्सेधांगुल का १ प्रमाणांगुल होता है। मात्सर्य : दान करते हुए भी आदर का न होना या दूसरे दाता के गुणों को न सह सकना मात्सर्य है। मुहूर्त: ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है अथवा ४८ मिनट (दो घड़ी) का एक मुहर्त होता है। विभाव : कर्मों के उदय से होने वाले जीव के रागादि विकारी भावों को विभाव कहते हैं। वीतराग : जिनके राग का विनाश हो गया है, उसे वीतराग कहते हैं। संयत : बहिरंग और अन्तरंग आस्रवों से विरत रहने वाला , . महाव्रती श्रमण संयत कहलाता है। सागरोपम : क्षेत्र प्रमाण का एक भाग । सूच्यंगुल : क्षेत्र प्रमाण का एक भेद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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