Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 314
________________ ( २९९ ) कर्म दूसरे क्षण में झड़ जाते हैं, उन्हें ईर्यापथ कर्म कहते हैं । उत्सेधागंल : क्षेत्र प्रमाण का एक भेद । ८ लीख का एक जू, ८ जू का एक यव और ८ यव का एक उत्सेधांगुल होता है । उपयोग : चेतना की परिणति विशेष का नाम उपयोग है । ऋद्धि : तपश्चरण के प्रभाव से कदाचित् किन्हीं योगियों को प्राप्त होने वाली चमत्कारिक शक्तियां विशेष ऋद्धि कहलाती हैं । ये अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व, अप्रतिघाती, अन्तर्धान काम, रूपित्व आदि अनेक प्रकार की हैं । करण: जीव के शुभ-अशुभ आदि परिणाम करण कहलाते हैं । अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण तीन करण होते हैं, जो उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हैं । कार्मण शरीर : समस्त कर्मों का आधार भूत कार्मण शरीर कहलाता है । काल : पांचवर्ण, पांच रस, दो गन्ध, आठ स्पर्श से रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला काल कहलाता है । क्षय: कर्मों के समूल नाश को क्षय कहते हैं । क्षेत्र : स्थान को क्षेत्र कहते हैं । गर्हा : गुरु के समक्ष अपने दोष प्रकट करना गर्दा है । गव्यूति : यह क्षेत्र का एक प्रमाण है । इसको कोश भी कहते हैं । २००० दण्ड ( धनुष) का एक कोश होता है । गुल क्षेत्र का प्रमाण विशेष । प्रतरांगुल को दूसरे सूच्यंगुल से गुणित करने पर घनांगुल होता है । चित्त : आत्मा का चैतन्य विशेष रूप परिणाम चित्त कहलाता है । 'चेतना : जिस शक्ति के होने से आत्मा, ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता होता है, वह चेतना है । यह जीव का स्वभाव है । धनुष : धनुष क्षेत्र का एक प्रमाण है। इसे दण्ड, युग, मुसल, नालिका एवं नाड़ी भी कहते हैं । चार हाथ प्रमाण माप का धनुष होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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