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२७४ : जैनदर्शन में आत्म-विचार
चिन्तन किया है । सभी भारतीय दार्शनिक इस बात से सहमत हैं कि आत्मस्वरूप का लाभ ही मोक्ष है । लेकिन आत्म-स्वरूप की तरह मोक्ष-स्वरूप में भी विभिन्नता है । दार्शनिक बुद्धयादि विशेषगुणों का उच्छेद होना मोक्ष मानते हैं, कुछ शुद्ध चैतन्य मात्र में आत्मा का अवस्थान होना ही मोक्ष का स्वरूप प्रतिपादन करते हैं, कुछ मोक्ष को सुखोच्छेद अर्थात् सुखविहीन रूप और कुछ मोक्ष को एक मात्र आनन्द स्वभाव की अभिव्यक्ति रूप मानते हैं । जैन दार्शनिक मोक्ष के उपर्युक्त स्वरूप से सहमत नहीं हैं । अतः यहाँ उन पर विचार करना आवश्यक है ।
(अ) बुद्धधादिक नो विशेष गुणों का उच्छेद होना मोक्ष नहीं है :
न्याय-वैशेषिक, कुमारिल भट्ट और प्रभाकर का यह सिद्धान्त कि बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार का समूल उच्छेद होना ही मोक्ष है, लेकिन मोक्ष का यह स्वरूप जैन दार्शनिकों को स्वीकार नहीं है । प्रभाचन्द्र न्याय-वैशेषिक दार्शनिकों से प्रश्न करते हैं कि आप बुद्धि आदि जिन नौ गुणों का मोक्ष में उच्छेद होना मानते हैं, वे गुण आत्मा से भिन्न हैं या अभिन्न या कथंचिद् भिन्न ? यदि बुद्धि आदि गुणों को आत्मा से भिन्न माना जाए, तो हेतु आश्रयासिद्ध ( हेतु का प में अभाव) हो जाता है, क्योंकि सन्तानी से सर्वथा भिन्न सन्तान कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती है । अतः आत्मा से भिन्न बुद्धि आदि सन्तान रूप गुणों का आश्रय पक्ष सिद्ध न होने से आत्मा से उन्हें भिन्न मानना ठीक नहीं है । उपर्युक्त दोष से बचने के लिए माना जाय कि बुद्धि आदि गुण आत्मा से अभिन्न हैं और उसके इन अभिन्न गुणों का उच्छेद होना मोक्ष है, तो उनका यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभिन्न
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होने का तात्पर्य है आत्मा और गुणों का एक होना यदि आत्मा से अभिन्न गुणों का उच्छेद होना मोक्ष माना जाए, तो गुणों के नष्ट होने से आत्मा का भी उच्छेद हो जाएगा, फिर मोक्ष की प्राप्ति किसको होगी ? जब आत्मा का विनाश हो जाएगा, तब यह कहना व्यर्थ हो जाएगा कि मोक्ष में आत्मा बुद्धि आदि गुणों से शून्य हो जाती है । अतः बुद्धि आदि गुणों को आत्मा से अभिन्न मानकर उनका उच्छेद मानना भी ठीक नहीं है । अब यदि न्याय-वैशेषिक यह
१. अमितगतिश्रावकाचार, ४।३९ ।
२. न्यायकुमुदचन्द्र : प्रभाचन्द्र, पृ० ८२५ । षड्दर्शनसमुच्चय, टीका : गुणरत्न, पृ० २८५ ।
३. प्रमेयकमलमार्तण्ड, ३१७ ।
४. वही ।
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