Book Title: Jain Dharma me Atmavichar
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 288
________________ बन्ध और मोक्ष : २७३ 'निगोद' (अनन्त जीवों का निवास स्थान) से निकलते रहते हैं। कहा भी है-"जितने जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं, उतने प्राणी अनादि निगोदवनस्पति. राशि में से आ जाते हैं । इसलिए निगोदराशि में से जीवों के निकलते रहने के कारण संसारी जीवों का कभी सर्वथा क्षय नहीं हो सकता है। जितने जीव अब तक मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और आगे जाने वाले हैं, वे निगोद जीवों के अनन्तवें भाग भी न हैं और न हुए हैं और न होंगे।" अतः सिद्ध है कि मुक्त जीवों के वापस न होने पर संसार जीवों से खाली नहीं हो सकता है । इसी प्रकार और भी अनेक टोकाकारों ने अपना मत व्यक्त किया है। गोम्मटसार की टीका में लिखा है, "कदाचित् आठ समय अधिक छह माह में चतुर्गतिक जीव राशि से निकल कर १०८ जीव मोक्ष जाते हैं और उतने ही जीव नित्य निगोद भव को छोड़कर चतुर्गति भव में आ जाते हैं" ।' द्रव्यसंग्रह की टीका में जीवराशि के अन्त न होने को सिद्ध करते हुए कहा है कि भविष्यत् काल के समय क्रम से नष्ट होते रहने से भविष्यत् काल की न्यूनता होती है, किन्तु समय राशि का अन्त नहीं होता है, उसी प्रकार जीवों के मुक्त होने से यद्यपि जीवराशि की न्यूनता होती है, तथापि उस जीवराशि का अन्त नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि अभव्य के समान सभी भव्य जीवों को भी मोक्ष-प्राप्ति नहीं होती है, अतः जीवराशि का अन्त किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। परिमित वस्तु ही घटती-बढ़ती है तथा उसी का अन्त सम्भव है । अपरिमित वस्तु में न्यूनाधिकता तथा सर्वथा विनाश होने का प्रश्न नहीं होता। जीवराशि अनन्त अर्थात् अपरिमित है, अतः भव्य जीवों की मुक्ति होने पर भी संसार जीवराशि से रिक्त नहीं होता। (ख) जैनेतर भारतीय दार्शनिक परम्परा में मान्य मोक्ष-स्वरूप की मीमांसा: भारतीय चिन्तकों ने मोक्ष को महत्वपूर्ण मानकर उस पर गम्भीरतापूर्वक १. सिज्झन्ति जत्तिया खलु इह संववहारजीवरासोओ। - एंति अणाइवणस्सइ रासीओ तत्तिआ तम्मि ।। -स्याद्वादमञ्जरी, का० २९ पृ० २५९ पर उद्धृत । २. वही, पृ० २५९-६० । ३. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), जीवप्रदीपिका टीका, गा० १९७, पृ० ४४१ । ४. बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, गा० ३७, पृ० १४१ । ५. स्याद्वादमञ्जरी, का० २९, पृ० २६० । १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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